अध्यआत्मिक्ता में जब गुरु शिष्य के हृदय पर अपनी ऊर्जा का पूर्ण रूप से शक्तिपात कर उसे शिष्य के रूप से तहेदिल से स्वीकार कर उसकी अध्यात्मिक उन्नति के लिए अपने सद्गुरु से प्रार्थना करता है कि इसे आप अपने काबिल बना दो सही रूप में सद्गुरु उस पर अपने शिषय के माध्यम से तववजुह दे उसके शरीर के रोम रोम में ऊर्जा पैदा कर उसे हृदय चक्र जो कि केन द्रिय बिंदु होता है वहा से उर्धगति कर सारे शरीर मे ऊर्जा का गमन शुरू कर देते है जिससे शिष्य को ऊर्जा के गमन करने का अनुभव होंने लगता है और एक मधुर ओम की ध्वनि का चलन पूरे शरीर मे महसूस होने लगता है और शिष्य इस मधुर ध्वनि से अनुभूत हो ध्यान मगन हो समाधि मि अवस्था में पहुच जाता है यहां उसे भौतिक संसार नहर नही आता अपितु वो ध्वनि जो शरीर मे गूंज रही है उसी में लय हो जाता है और धीरे धीरे मस्तष्क विचार शून्य हो जाता है यहां जब शून्य में खो जाता है तब वो शून्य में उतर ना ओर भीतरी ब्रह्मांड का अपने अंदर अनुभव करने लगता है जब उसका मन बाहरी ओर भीतर से शांत हो विचार शून्य हो कर एकाग्र हो जाता है और शून्य को विचार होते ही उसके अंदर चल रहे विचार और स्वम् के अनुभव भी शून्य में बदल जाते है और यहां गुरु शिष्य के मेल से साधक उस अवस्था मे पहुचने की तैयारी कर लेता है जिसे वीतरागी कहा है मन भौतिक संसार से ऊब जाता है और उसका मन स्थिर हो अपने गुरु में लय हो जाता है यही स्तिथि सबसे पहले हमें मोक्ष के करीब ले जाती है यही से शिषय अपने अंदर शून्यता को पूर्ण रूप से अहसास करता है और समाधि में गहन मां की गहराई में उतर जाता है जहां मैं मिट मर सिर्फ तू यानी गुरु रुपी ईश्वर रह जाता है और शिष्य का शरीर शून्य में लय हो शून्य से महाशून्य के ध्यान में समाधिस्थ हो जाता है ये मेरा अनुभव है अगर ठीक लगे तो पढ़े अन्यथा डिलीट करदे मैं जानता हु की मैं इस काबिल नही पर जो गुरु ने सिखया वह लिख देता हूं नमम