अध्यात्म में मैं में मैं मिल गया और तू में तू तो क्या शेष रहा जो शेष रह गया वह अध्यातमिक।प्रेम की परिकाष्ठा ही है जो गुरु अपने शिष्य पर मेहरवान हो।कर देता है ऐसी परिस्तिथि में गुरु शिष्य में या शिष्य गुरु में लय हो कर एक रूप हो जाएंगे जो अध्यात्म की परिकाष्ठा है ये इस बात को दर्शाता है कि अध्यात्म और प्रेम की गहरी सच्चाई को व्यक्त करता है। जब “मैं” और “तू” की भेदना मिट जाती है, तब केवल प्रेम और एकता रह जाती है। यह अनुभव उस स्तर तक पहुँचता है, जहाँ सभी भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और केवल एक दिव्य संबंध का अनुभव होता है। इस परिकाष्ठा में ही सच्चे प्रेम की महत्ता और उसकी शक्ति निहित है।