आपका कथन अतुलनीय है और अध्यात्म में गुरु शिष्य के रिश्ते को जाहिर करता है गुरु अगर पारस हैतो शिष्य लोहा ओर गुरु के हाथ लगते ही सोना बन जाता है पर पारस नही पारस गुरु स्वम् बनाता जब वो चाहता है गुरु की कृपा और शिष्य की सेवा का अपना-अपना स्थान और महत्व है, लेकिन उनकी तुलना नहीं की जा सकती।
गुरु की कृपा असीम और अनमोल होती है। गुरु वह प्रकाश है जो शिष्य के जीवन में अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाता है। उनकी कृपा शिष्य को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है और उसे आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है।
वहीं, शिष्य की सेवा गुरु के प्रति समर्पण, श्रद्धा और कृतज्ञता का प्रतीक है। सेवा शिष्य को विनम्रता और अनुशासन का पाठ सिखाती है, जिससे वह गुरु की कृपा का पात्र बनता है।
इसलिए, गुरु महान हैं क्योंकि वे शिष्य को सही दिशा दिखाने वाले मार्गदर्शक हैं, और शिष्य उनकी कृपा से लाभान्वित होने के लिए सेवक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करता है। दोनों का संबंध प्रेम, श्रद्धा और समर्पण पर आधारित होता