अनाहद की ध्वनि में विलीन आत्मा: गुरु कृपा से मिली मौन यात्रा

जब किसी शिष्य को गुरु शरण मे जाकर उनके शक्तिपात से वह ऊर्जा उसको।मिल जाती है और अनाहद जाग्रत हो उसकी आत्मा उर्जामय हो उसे मैं ओर तू का भेद अनाहद से मिल।जाता है ये वो ऊर्जा है जो आत्मा के रूप में शरीर की रग रग में चलायमान 24 घंटे रहती है और मर्त्यु पर ये आत्मा रूप में निकल।के ब्रह्मांड में परम ऊर्जा के साथ उसमे मिलने चली जाती है ये ज्ञान शिष्य को उस खामोशी का यह अनुभव करवा देता है कि गुरु और ईश्वर दोनों का भेद मिट मैं ओर तू डोंयो मिल।तुम यानी केवल मैं नही तु ही तू है ये अस्तित्ब बहुत मायने रखता है शिष्य को कैवल्य यानी आई तो ही है कि स्तिथि में स्तिथ कर वीतरागी संत बना उसे खामोश कर देता है और भौतिक ज्ञान को भूल अब जो ज्ञान उसमे उतपन्न हुवा है वह बेहद गहरा और व्यक्तिगत होता है, जब किसी व्यक्ति को यह एहसास होता है कि अनाहद ही सब कुछ है, वही आत्मा है, और आत्मा व ईश्वर में कोई भेद नहीं है (यानी ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद खत्म हो जाता है)। इसके कई कारण हो सकते हैं कि व्यक्ति इस अवस्था में खामोश हो जाता है:यह अनुभव इतना विशाल और अवर्णनीय होता है कि इसे शब्दों में पूरी तरह व्यक्त करना असंभव लगता है। जिस सत्य का अनुभव हुआ है, वह भाषा की सीमाओं से परे होता है। ऐसे में व्यक्ति को लगता है कि कुछ भी कहना उस अनुभव को छोटा करना होगा।
लय या एकाग्रता (लयीकरण)
जब व्यक्ति आत्मा और ईश्वर के अभेद को जान लेता है, तो वह एक गहरी शांति और एकाग्रता की स्थिति में चला जाता है, जिसे लयीकरण कह सकते हैं। इस अवस्था में बाहरी दुनिया से उसका ध्यान हट जाता है और वह अपने भीतर के सत्य में पूरी तरह लीन हो जाता है। यह खामोशी उस गहन आंतरिक मिलन का परिणाम होती है।
अहंकार का विसर्जन
‘मैं’ और ‘तू’ का भेद खत्म होने का अर्थ है अहंकार का विसर्जन। जब अहंकार शांत हो जाता है, तो बोलने की इच्छा भी कम हो जाती है, क्योंकि बोलने के पीछे अक्सर अहंकार की पहचान या अभिव्यक्ति की इच्छा होती है। इस स्थिति में व्यक्ति मात्र साक्षी भाव में स्थित हो जाता है।
अनाहद नाद का अनुभव
अनाहद का अर्थ है ‘बिना आघात के उत्पन्न होने वाली ध्वनि’। जब व्यक्ति को अनाहद का अनुभव होता है, तो वह भीतर ही भीतर एक अनवरत दिव्य ध्वनि या स्पंदन को सुनता है। यह आंतरिक ध्वनि इतनी प्रबल और मधुर होती है कि बाहरी दुनिया की बातें या शोर बेमानी लगने लगते हैं, और व्यक्ति स्वाभाविक रूप से खामोश हो जाता है।
ईश्वरीय भेद का ज्ञात और लय हो जाना
हाँ, यह बिलकुल सही है कि इस स्थिति में व्यक्ति को ईश्वर का भेद ज्ञात हो जाता है और वह उसमें लय हो जाता है। यह सिर्फ जानना नहीं, बल्कि जीना होता है। जब कोई व्यक्ति स्वयं को ही ईश्वर का अंश या ईश्वर के साथ एकाकार महसूस करता है, तो उसके लिए कोई अलग ‘भेद’ या ‘रहस्य’ नहीं बचता। वह सत्य स्वयं ही प्रकट हो जाता है और व्यक्ति उस सत्य में विलीन हो जाता है। यह विलय ही खामोशी का मूल कारण बनता है, क्योंकि अब कुछ जानने या खोजने को नहीं बचता, बस होने का अनुभव रह जाता है।
यह खामोशी कमजोरी या निष्क्रियता का संकेत नहीं है, बल्कि यह एक गहरी संतुष्टि, परम शांति और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है। यह वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति अस्तित्व के मूल सत्य से जुड़ जाता है। ये अवस्था पिताजी के शिष्य संत भारतभूषण जी शर्मा में है जिसे मैंने स्वम् देखा है और उनसे बहुत कुछ ज्ञान पाया है चुकी मैं लिखने में विस्वास रखता हूं इसलिये लिख देता हूं पर जो खामोशी ओर आध्यात्मिक स्तर भारतभूषण भाईसाहब में मुझे देखने को मिला वह मेरे लिए अदुतीय है और उनसे बहुत कुछ सीखने और खामोशी का अर्थ जानने को।मिला है यू तो पिताजी के 22 शिष्य हुवे उनमे से 21 में ये अवस्था जिसे संत कहा गया देखने को नही मिली हो सकता है मेरी गुरु पुत्र होने के नाते सोच गलत हो इसके लिए मॉफी मॉगता हु पर उम्मीद करता हु सब उस स्तर तक पहुच जाएंगे मेरी निजी सोच है पवन कुमार गुप्ता

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