अपनी ओर निहार लो, औरों से क्या काम   

अपनी ओर निहार लो, औरों से क्या काम   

                   (ब्रह्मलीन परमसन्त डॉ. करतारसिंह जी महाराज )

           आसमान में हर  तरह की आवाज़ें – सूक्ष्म और स्थूल – भरी हुई हैं, मगर उन सूक्ष्म आवाज़ों को सिर्फ़ वही सुन सकता  है जिसने अपने कानों के परदे को लतीफ़ (सूक्ष्म ) बनाकर उस दर्ज़े की आवाज़ों के साथ मिला लिया हो जिस दर्ज़े की आवाज़ हो रही है.

         हमारे बाहरी कान किसी एक प्रकार के परिमाणुओं के बने हुए हैं और अन्दर के कान किसी दूसरे  प्रकार के परिमाणुओं के बने हैं. बाहरी आवाज़ जो सुनाई दे जाती है वह उन्हीं मसालों की होती है जिस मसाले से हमारे  बाहरी कानों के परिमाणु  बने होते हैं.  इसलिए बाहरी कानों से हम बाहरी आवाज़ों को ही सुन सकते हैं और अन्दर के कानों से अन्तर की आवाज़ों को. ब्रह्माण्ड में और हमारे अपने अन्दर अनेक प्रकार के शब्द हो रहे है लेकिन हम केवल उन्हीं शब्दों को बाहर और अन्दर सुन सकते हैं जिनसे हमारे बाहर और अन्दर के कानों की मुताबिक़त (समानता ) होती है. 

         यही हाल आँखों के प्रकाश का है. हमारी आँख उसी प्रकाश का ज्ञान हासिल कर सकती है जो उसी मसाले से बना है जिससे हमारी आँख बनी है, वर्ना नहीं. सब ही प्राणी किसी न किसी शक्ल में ज़बान से अपने ख्याल ज़ाहिर करते हैं मगर उनको सिर्फ़ वही सुन सकता है जिसने अपने कान की ताक़त को उस शब्द के मुताबिक बना लिया है जो ज़बान से निकल रही है. इंसान इंसान की बात सुनता है क्योकि इसमें हम-जिन्सियत ( एक जैसी हैसियत ) है.  चींटी चींटी से मुँह मिलाकर बात करती है क्योकि उसमें यकसानियत (समानता ) है. आवाज़ सिर्फ़ वही सुनी जा सकती है जिसके लिए कानों में क़बूलियत का माद्दा (ग्रहण करने की शक्ति ) हो, फिर चाहें आवाज़ मोटी हो या बारीक़. इसी तरह रोशनी की कमी या ज़्यादती दोनों आँखों के लिए बेकार है. नज़र सिर्फ़ वही चीज़ आ सकती है जिसको आँख क़बूल करे इसी तरह हमारी नाक और ज़बान का हाल है. दुनियाँ में सब कुछ है लेकिन जिसका जैसा ज़र्फ़ ( अधिकार या योग्यता ) है उसको उतना ही मिल सकता है, ज़्यादा कैसे नसीब हो सकता है ? पर जो मिलने वाला है वह मिलकर रहेगा, इसमें ज़रा भी शक नहीं है . 

          मुक़्क़दर और क़िस्मत का साफ़ और दूसरा नाम ज़र्फ़ ( क़ाबलियत ) है. यही नसीब है. नसीब के और कोई मायने फ़िज़ूल हैं. जिसको जिस्मानी (शारीरिक ) दिली, अक़्ली और दिमाग़ी आज़ा ( अंगों या इन्द्रियों ने ) ने जहां तक अपनी तकमील (पूर्णता) कर ली है, बस उसको उतना ही इल्म होगा और वहीँ तक समझ होगी. अगर किसी को इससे इंकार है तो हमको कुछ कहने की ज़रूरत  नहीं.    

        यह मालूम हो जाय कि किसको कितना हौसला है और कहाँ तक उसको पाने, लेने, देने और ख़ुद फ़ायदा पहुँचाने का हक़ है. यही सबब (कारण ) है कि हम बहस मुबाहिसा वगैरा से भागते रहते हैं. आइना देखने को आँख की ज़रूरत होती है. अंधों को आइना दिखाना ग़लती है. वह क्या ख़ाक देख  सकेंगे ?

         हम जानते हैं कि रौशनी और आवाज़ की दुनिया में ख़ास हैसियत है. नादान कहता है ‘कुछ भी  नहीं ‘ . बहुत अच्छा, कुछ भी नहीं सही. वह भी सच्चा, हम भी सच्चे, क्योकि सच्चाई सिर्फ़ निस्बती है और  निस्बत के दर्ज़े होते हैं. उल्लू को सूर्य नज़र नहीं आता, चिमगादड़ को रौशनी दिखाई नहीं देती, तो इनको बताने से क्या फायदा ?

        योगीराज भृतहरि जी कह गए हैं कि इंसानी क़िस्मत एक छोटी लुटिया के बराबर है. चाहे उसको तालाब में डालो या समुद्र में, पानी उतना ही आवेगा जितनी बर्तन की ज़राफियत (घनत्व ) है. इसी तरह नास्तिक और आस्तिक दोनों अपनी जगह पर सच्चे हैं. जो नहीं देखता वह कैसे किसी ख़ास हस्ती का क़ायल हो. जो देखता है उसको क्या  हक़ है कि न देखने वाले के साथ लड़ाई करे? अगर उसको देखने और न देखने की लियाक़त हासिल हो गई हो तो दूसरी बात है. और जब तक वह इस तमीज़ से ख़ाली है तब तक उसका कहना और सुनना सब बेसूद ( निर्थक ) है. इसका मतलब है कि कुदरत में हर जगह काबिलियत(योग्यता ) अधिकार व  संस्कार का सबाल मौज़ूद रहता है. वगैर अधिकार व संस्कार के कुछ नहीं मिलता और यह आधिकार व संस्कार भी परमात्मा के असली हुक्म पर मौक़ूफ़ ( कृपा पर निर्भर ) है  :-

                             बे-बक्त किसी को कुछ मिला है ? 

                             पत्ता नहीं हुक्म बिना हिला है ! 

       इसलिए जो इल्म-इरफ़ान से बाख़बर (ज्ञान से परिचित ) है उसको सिर्फ अपने काम पर लगे रहना चाहिए . और दूसरों की रूहानी तकमील ( पूर्णता ) वक्त के हवाले कर देनी चाहिए. ‘ क़ब्ल – अज़ – मर्ग बाबेला ‘ ( उर्दू की कहाबत जिसका अर्थ है : मरने से पहले ही शोर मचाना ) फ़िज़ूल है . हम धीरे-धीरे अपनी ज़िन्दगी के मरहलों ( समस्याओं ) को तय करते चले जा रहे हैं. जो हालत आज है वह कल नहीं थी और जो हालत कल होगी वह आज नहीं है. हम सब लोग तब्दीली ( परिवर्तन ) की हालत में रहते हैं. जब यह अच्छी तरह समझ लिया कि हालतें बदलती रहती हैं तो फिर किसी से क्यों उलझना चाहिए ?

        इंसान क्यों न सबके साथ मिलजुल कर अपना काम करे ? ख़ैरियत भी इसी बात में है कि सिर्फ अपनी तऱफ नज़र रखे और जीवन के व्यावहारिक रूप ज्ञान रखते हुए अपनी ज़ाती (निजी ) भलाई का ख़्याल करता रहे – 

                     जन्म-मरण का दुःख याद कर , कूड़े काम निवार,

                     जिन जिन पन्थों चालना ,    सोई  पन्थ     संवार ! 

                    अपनी ओर निहारिये ,      औरों  से   क्या    काम , 

                    सकल देवता छोड़कर , भजिये   गुरु     का नाम !! 

राम सन्देश : नवंबर – दिसंबर ; १९९७

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *