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- कर्तापन का अंत: व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह कर्ता (Doer) नहीं है, बल्कि ईश्वर ही सबका कर्ता है।
- मैं और मेरा का अभाव: “मैं” और “मेरा” की भावना समाप्त हो जाती है।
- समत्व भाव: सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान में समान भाव रहता है।
- पूर्ण विनम्रता: घमंड, अभिमान, और आत्मश्लाघा समाप्त हो जाती है।
- निर्लिप्तता: संसार में रहकर भी उसमें लिप्त नहीं रहते, जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी गीला नहीं होता।
- साक्षी भाव: व्यक्ति मात्र साक्षी (Observer) बनकर सब देखता है, जुड़ाव या प्रतिक्रिया नहीं करता।
- पूर्ण शांति और आनंद: मन की अशांति और द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं, और स्थायी शांति और आनंद प्राप्त होता है।