अद्वैत वेदांत के अनुसार, “अहं ब्रह्मास्मि” का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर वही परम सत्ता या ब्रह्म निवास करती है, जो इस संपूर्ण सृष्टि का मूल है। जब आप कहते हैं कि मानव चोले में ब्रह्म की उच्चतम स्थिति होती है, तो यह विचार दर्शाता है कि यह शरीर केवल एक साधन है, जिसके माध्यम से आत्मा अपनी दिव्यता को पहचान सकती है।
अध्यात्म की यात्रा: आत्मा से ब्रह्म तक
- माया का पर्दा:
संसार में हर व्यक्ति माया (भौतिकता) से बंधा हुआ है। माया व्यक्ति को भ्रम में डालती है और उसे यह विश्वास दिलाती है कि वह केवल यह शरीर और मन है। - स्वयं की पहचान:
जब व्यक्ति ध्यान, योग और ज्ञान के माध्यम से आत्मनिरीक्षण करता है, तो उसे यह एहसास होता है कि वह शरीर और मन से परे है। वह आत्मा है, जो शाश्वत, अजर-अमर और अनंत है। - ब्रह्म से एकता का अनुभव:
आत्मा जब अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेती है, तो वह ब्रह्म से अपनी एकता का अनुभव करती है। यह स्थिति “साक्षात्कार” या “समाधि” की स्थिति कहलाती है। इसमें व्यक्ति को यह समझ में आता है कि उसकी आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।