आत्मा का परमात्मा में विलय (जिसे मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण या आत्मसाक्षात्कार भी कहा जाता है) आध्यात्मिकता और भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह वह अवस्था है जब आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) अपने मूल स्रोत, परमात्मा (सर्वव्यापक चेतना) में विलीन हो जाती है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है।
विभिन्न दर्शनों में आत्मा-परमात्मा का विलय
- अद्वैत वेदांत
आदि शंकराचार्य के अनुसार, आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) इस विचार को दर्शाता है। आत्मा अज्ञान (माया) के कारण परमात्मा से अलग प्रतीत होती है, लेकिन जब ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) प्राप्त होता है, तो आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाता है।
- द्वैत वेदांत
मध्वाचार्य के अनुसार, आत्मा और परमात्मा दो अलग-अलग वास्तविकताएँ हैं। आत्मा परमात्मा से कभी विलीन नहीं होती, बल्कि भक्ति और प्रेम द्वारा भगवान (श्रीहरि) की शरण में जाकर मुक्ति प्राप्त करती है।
- विशिष्टाद्वैत वेदांत
रामानुजाचार्य का मत यह है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है और भक्ति मार्ग के द्वारा आत्मा परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर सकती है, लेकिन उसका अस्तित्व अलग बना रहता है।
- योग दर्शन (पतंजलि योगसूत्र)
योग साधना के माध्यम से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानती है और परमात्मा से एकाकार हो जाती है, जिसे “कैवल्य” कहते हैं।
- भगवद गीता
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा अविनाशी है और परमात्मा का ही अंश है। जब व्यक्ति निष्काम कर्म और भक्ति द्वारा भगवान में समर्पित हो जाता है, तो वह परमात्मा के साथ एक हो जाता है।
आत्मा-परमात्मा के विलय की प्रक्रिया
- ज्ञान मार्ग (अद्वैत वेदांत)
आत्मा का परमात्मा में विलय आत्मबोध और आत्मज्ञान द्वारा होता है।
विवेक (सत्य-असत्य का ज्ञान) और वैराग्य (संस्कारों से मुक्ति) आवश्यक हैं।
- भक्ति मार्ग (द्वैत/विशिष्टाद्वैत वेदांत)
प्रेम, श्रद्धा और भक्ति द्वारा आत्मा परमात्मा की कृपा प्राप्त कर सकती है।
नामस्मरण, ध्यान, कीर्तन आदि साधन हैं।
- कर्म मार्ग (भगवद गीता)
निष्काम कर्म और धर्मपूर्वक जीवन यापन आत्मा को परमात्मा के समीप ले जाता है।
- राजयोग/ध्यान मार्ग (पतंजलि योगसूत्र)
ध्यान, समाधि और योगाभ्यास के द्वारा आत्मा को परमात्मा से जोड़ा जा सकता है।
निष्कर्ष
आत्मा और परमात्मा का मिलन हर व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम लक्ष्य है। यह मिलन किसी बाहरी साधन से नहीं, बल्कि आंतरिक ज्ञान, भक्ति, ध्यान और कर्मयोग से संभव होता है। जब अहंकार और अज्ञान समाप्त हो जाते हैं, तब आत्मा को अपने परम स्वरूप का बोध होता है और वह ब्रह्मांड में परमात्मा में विलीन हो जाती है।