।पिताजी साहब का कहना था जब कोई शिष्य उनके पास दिक्सित होने या ध्यान प्रक्रिया के बारे जानने आता था तो उसे प्रेम भक्ति ज्ञान ध्यान और समाधि के बारे में समझते थे फिर उसकी मन की शंकाये दूर कर जब उन्हें लगता कि इसमें काबलियता आ गई है और इसमें विस्वास पैदा हो गया है और ये आध्यात्मिक शिक्षा पाने के काबिल है तो उसे ध्यान की प्राकृत में शामिल।करते थे अन्यथा यू ही बाते कर उसे अपने से दूर कर देते थे क्योंकि वो जान जाते थे कि ये काबिल।नही है और यू ही उनका वक़्त जाहिर कर रहा है चुकी मैं ज्योतिष के शेस्त्र में था मेरे वास बहुत से लोग आते थे और उनमें से कुछ में ध्यान करने और सीखने की उत्सुकता होती थी तो उनको पिताजी के लास भेज देता था जिसके भाग्य में उनका आशीर्वाद पाना होता था वो जुड़ जारे थे बाकी एक दो बार आ कर अपने घर लौट जाते थे पिताजी का कथन था की आध्यात्मिक मार्ग में गुरु द्वारा शिष्य को ध्यान करने की अनुमति, फिर आचार्य पद और अंततः पूर्ण गुरु पद प्रदान करने की प्रक्रिया बहुत ही गहरी, अनुशासित और शिष्य की आंतरिक योग्यता पर आधारित होती है। यह प्रक्रिया अलग-अलग परंपराओं और गुरुकुलों में भिन्न हो सकती है, लेकिन इसके पीछे सामान्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
- ध्यान करने की अनुमति (शुरुआती चरण)
आध्यात्मिक परिपक्वता की जांच: गुरु पहले शिष्य की आंतरिक स्थिति, समर्पण, और उसके मन के स्थिरता स्तर को परखते हैं।
प्रारंभिक मार्गदर्शन:
शिष्य को साधारण ध्यान तकनीक, जैसे मंत्र जाप में ओम या सोहम नाम का जप करने की कहते पर अपनी दिव्य दृष्टि से उसके हृदय के समीप आत्मा के स्थान को अपनी ऊर्जा से जाग्रत कर देते थे जिससे उसे अपने अंदर कुछ ईश्वरीय अनुभूति होने लगती ओर वह आध्यात्मिक आनंद में खो जाता था ओर से ईश्वरीय प्रार्थना का अभ्यास कराया जाता है।
यह देखने के लिए कि शिष्य अपने मन को शांत कर सकता है या नहीं। उसे जाप करने के लिए प्रेरित काढ़ते थे और उसके अंदर अवगुणों को दूर करने के लिए कहते थे ताकि दोष दूर हो सके और आध्यात्मिकता उसमे पैदा हो सके और सम व्यवहार उसमे उतपन्न हो जाये : ओर शिष्य के कर्म, भावनाओं, और मानसिक स्थिति को शुद्ध करने में मदद करते हैं।ओर
शिष्य की योग्यतापर ध्यान की गहरी विधियां ध्यान से समाधि के बारे में ज्ञान देते और लगता कि काबिल है तो उसे ये विधि सिखाई जाती हैं, जब शिष्य इसके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार हो। ओर वो देख लेते थे कि इसमें काबलियत आई या नही तभी उसे सिखाते थे
आचार्य पदवी अध्यमकता के ज्ञान का काबलियत के आधार ओर अगला चरण साधक के बाद
आचार्य पदवी एक उन्नत स्तर होता है, जहां शिष्य को गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करने के बाद दूसरों को सिखाने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है ओर शिष्य को गुरु की विशेषता ओर अपनी योग्यता के आधार पर आध्यात्मिक ज्ञान व ध्यान करना इर कैसे किया जाय है कि शिक्षा देना होता था और ईश्वर में पूर्ण आस्था पैदा करना व शिष्य का अहंकार रहित होना।ओर शिष्य का ज्ञान और ध्यान में गहरी प्रवीणता।इसके अतिरिक्त गुरु के प्रति निष्ठा और अपने शिष्यों के प्रति करुणा। इसके अलावा समय समय पर वो शिष्य को आध्यात्मिक स्तर पर जांचते थे जी वह सही मार्ग पर चल रहा है इर नित्य ध्यान और समाधि में लगा हुआ स्वाध्याय कर रहा है
गुरु द्वारा परीक्षा:
गुरु शिष्य को कठिन स्थितियों में डालकर यह देखते हैं कि क्या वह शांति और संतुलन बनाए रख सकता है।
गुरु यह भी जांचते हैं कि शिष्य अपने ज्ञान को बिना किसी अहंकार या स्वार्थ के साझा करने के लिए तैयार है या नहीं।आचार्य का कार्य:
अपने गुरु के सिद्धांतों को आगे बढ़ाना।नए शिष्यों को साधना और ध्यान की प्राथमिक विधियां सिखाना।
पूर्ण पदवी (पूर्ण गुरु का स्तर)यह आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च स्तर है, जिसे केवल वही शिष्य प्राप्त करता है जो आत्मबोध (Self-realization) और ब्रह्मज्ञान (God-realization) प्राप्त कर चुका होआत्मबोध की प्राप्ति:शिष्य को यह अनुभव हो जाता है कि वह आत्मा और ब्रह्मांड एक हैं।वह द्वैत से ऊपर उठकर अद्वैत के अनुभव में स्थित हो जाता है।ओर गुरु बनने की क्षमता:
ऐसा व्यक्ति न केवल अपनी आत्मा को मुक्त कर चुका होता है, बल्कि दूसरों को भी मोक्ष के मार्ग पर ले जाने में सक्षम होता है।पूर्ण गुरु पदवी केवल गुरु के आशीर्वाद और क़ाबलितत पर ही स्वीकृति से मिलती है।इसे “दीक्षा का सर्वोच्च स्तर” भी कहा जाता है।गुरु द्वारा शिष्य को पूर्ण गुरु पद देने के मानदंड
पूर्ण समर्पण: शिष्य में अपने गुरु और साधना के प्रति संपूर्ण समर्पण होना चाहिए।
ज्ञान और विनम्रता: गहन आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ विनम्रता और अहंकार का पूर्ण त्याग।
सहिष्णुता और करुणा: दूसरों को सिखाने और उनकी गलतियों को सुधारने की क्षमता।
स्वार्थहीनता: शिष्य के कार्य पूरी तरह से लोक कल्याण और अध्यात्म के लिए समर्पित होने चाहिए।
आत्मसाक्षात्कार: बिना आत्मबोध के, गुरु पद की पूर्णता संभव नहीं।
पिताजी के द्वारा अपने जीवन काल मे लगभग 50 व्यक्तियों का आगमन रहा जो मैंने देखा और पाया पर अंतिम समय तक लगभग 30 व्यक्ति ही उनके साथ जुड़े रहे जिनमे से लगभग 10 व्यक्तियों को ध्यान करने की इजाजत दी गई ओर आचार्य श्रेणी में उन्होंने भारतभूषण जी की जिनको संत की उपाधि पिताजी ने दी विमल नाथ खन्ना दिनेश जी कृष्णा बहिन केशव बहिन औरकुछ ओर अन्यो जैसे अनंत कोटिया पर भी फिदा थे और उन्हें इस राह में काबिल मानते थे भंडारे का आयोजन वो मुझ पर ओर दिनेश जी को सोपते थे पिताजी के सभी पुत्र आध्यात्मिकता में श्रेष्टता रखते है ओर ओर काबिल है
सारांश
गुरु शिष्य को ध्यान कराने की अनुमति तभी देते हैं जब शिष्य तैयार हो। आचार्य पदवी शिष्य को उसकी साधना और ज्ञान की गहराई के आधार पर दी जाती है। पूर्ण गुरु का पद तब मिलता है, जब शिष्य आत्मबोध और ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और अपने गुरु के कार्य को आगे बढ़ाने में सक्षम हो। इस प्रक्रिया का मूल उद्देश्य शिष्य को आत्मा से जोड़ना और अंततः उसे दूसरों का मार्गदर्शन करने के योग्य बनाना है।