ईश्वर की अनुभूति: भ्रम, भक्ति और माया से परे एक जागृति

।कोई कहे छल ईश्वर नही कोई किंनर कहलाये
कोई कहै गण ईश का ज्यूँ ज्यूँ मात रिसायेयह दोहा गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थों से भरा है। इसमें ईश्वर की प्रकृति, मानव की समझ और भक्ति के भाव को सूक्ष्म रूप से दर्शाया गया है। आइए इसका अर्थ समझते हैं:दोहा: कोई कहे छल ईश्वर नहीं, कोई किंनर कहलाये
कोई कहै गण ईश का, ज्यूँ ज्यूँ मात रिसायेअर्थ:”कोई कहे छल ईश्वर नहीं”: कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर एक छलावा है, वह वास्तव में है ही नहीं। यह उन लोगों की ओर इशारा करता है जो ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं या नास्तिक दृष्टिकोण रखते हैं।”कोई किंनर कहलाये”: कुछ लोग ईश्वर को न पुरुष, न स्त्री, बल्कि किंनर (नपुंसक या तटस्थ) की तरह मानते हैं। यह ईश्वर के उस स्वरूप की ओर संकेत करता है जो लिंग, रूप या भेद से परे है, यानी निर्गुण और निराकार।”कोई कहै गण ईश का”: कुछ लोग ईश्वर को उनके गणों (अनुयायियों, जैसे शिवगण) या उनके समूहों के रूप में पूजते हैं। यह सगुण भक्ति का प्रतीक है, जहां लोग ईश्वर को उनके अवतारों, शक्तियों या अनुचरों के रूप में देखते हैं।”ज्यूँ ज्यूँ मात रिसाये”: जितना अधिक माता (देवी या माया) क्रोधित होती हैं, उतना ही यह भेदभाव और भ्रम बढ़ता है। यहाँ “मात” को माया या प्रकृति के रूप में देखा जा सकता है, जो जीव को भटकाती है और सत्य से दूर रखती है। जब तक जीव माया के प्रभाव में है, वह ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पाता।कुल अर्थ: यह दोहा मानव के विभिन्न दृष्टिकोणों और ईश्वर के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है। कुछ लोग ईश्वर को नकारते हैं, कुछ उन्हें निराकार मानते हैं, और कुछ उनके सगुण रूप की पूजा करते हैं। लेकिन जब तक जीव माया के प्रभाव में है, वह सत्य को पूरी तरह नहीं समझ पाता। माया का क्रोध (या प्रभाव) जीव को भटकाता रहता है, और सच्ची भक्ति और ज्ञान ही उसे मुक्ति दिला सकते हैं।सांस्कृतिक संदर्भ: यह दोहा संभवतः भक्ति काल या लोक परंपरा से प्रेरित है, जहाँ ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों और मानव की भक्ति के स्तरों पर विचार किया जाता था। यह कबीर या अन्य संत कवियों की शैली से मिलता-जुलता है, जो सत्य की खोज और माया के भ्रम को उजागर करते थे।

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