कबीर का संदेश: गुरु की महिमा और सत्य के प्रति श्रद्धा

जाका गुरु है अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधे अंधे ठेलिया, दोनों कूप परंत॥”

शब्दार्थ:

जाका = जिसका

गुरु = आध्यात्मिक मार्गदर्शक

अंधला = अंधा, अर्थात अज्ञानी (जो सत्य का ज्ञान नहीं रखता)

चेला = शिष्य

निरंध = पूरा अंधा, अति अज्ञानी

ठेलिया = धक्का दे रहा है, मार्गदर्शन कर रहा है

कूप = कुआँ

परंत = गिर पड़ते हैं

गहराई से व्याख्या:

संत कबीर यह दोहा कहकर एक अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सत्य उजागर करते हैं। समाज में अक्सर लोग बिना विवेक के गुरु बना लेते हैं — जो केवल बाहरी आडंबर दिखाते हैं पर स्वयं के भीतर सत्य का अनुभव नहीं रखते। ऐसे गुरु अंधे हैं, क्योंकि उन्हें न तो आत्मा का अनुभव है, न ब्रह्मज्ञान, न ही परमार्थिक सत्य की समझ।

यदि शिष्य भी बिना सोच-विचार के, केवल भीड़ या परंपरा के कारण ऐसे अज्ञानी गुरु का अनुकरण करता है, तो वह खुद भी अंधा है। नतीजा यह होता है कि दोनों ही सत्य के मार्ग से भटक जाते हैं और अज्ञान के गहरे कुएँ में गिर जाते हैं।
इसलिए हम जब भी किसी
मो गुरु बनाये तो अपनी विवेक।और बुद्धि का इस्तेमाल कर उसके ज्ञान आचरण और आध्यात्मिक योग्यता को परख ले यदि वो उपरोक्त कौसोटी पर खरा उतरता है और उसमें चरित्रता आत्मज्ञान सदाचार मानवता ओर सत्यनिष्ठा ओर अपने गुरु के प्रति वफादार है भी नही गुरु चुनने में विवेक होना चाहिए — ऐसा गुरु जो स्वयं आत्मज्ञान से युक्त हो, जिसने सत्य को देखा, जिया और अनुभव किया हो।. शिष्य को भी जागरूक होना चाहिए — केवल परंपरा, चमत्कार या दिखावे के आधार पर गुरु न चुनेंसत्य का अनुभव सबसे बड़ा प्रकाश है — जो स्वयं जलेला है (प्रकाशमान है), वही दूसरे को भी रोशनी दिखा सकता हैकबीर का यह दोहा आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है, जब कई लोग अंधभक्ति में लिप्त हैं।गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोविंद दियो बताय॥जब गुरु और भगवान (गोविंद) दोनों मेरे सामने खड़े हों, तो मैं पहले किसके चरण स्पर्श करूं?
मैं तो गुरु के ही बलिदान जाऊँ, जिन्होंने मुझे गोविंद (ईश्वर) का मार्ग दिखाया।मेरी सोच के अनुसार उपरोक्त कबीर साहब के दोहे हमे संत
कबीर की गुरु के प्रति सर्वोच्च श्रद्धा को दर्शाता है। गुरु ही वह सेतु है जो हमें ईश्वर तक पहुँचाता है। भगवान तो सर्वत्र हैं, लेकिन उन्हें पहचानने की दृष्टि गुरु ही देता है। इसलिए गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा माना गया है।


  1. साधु ऐसा चाहिए

“साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय॥”

अर्थ:
संत या गुरु ऐसा होना चाहिए जैसे अनाज छानने वाला सूप। वह सार (सत्य, ज्ञान) को ग्रहण करे और व्यर्थ (असार, अज्ञान) को दूर कर दे।

व्याख्या:
कबीर यहाँ विवेकशील गुरु की बात कर रहे हैं, जो शिष्य के जीवन में से भ्रम, अंधविश्वास, मोह आदि निकालकर केवल ज्ञान, भक्ति और आत्मसाक्षात्कार का बीज बोता है।


  1. पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ

“पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”

अर्थ:
संसार पोथियाँ (धार्मिक किताबें) पढ़-पढ़ कर मर गया, लेकिन कोई सच्चा ज्ञानी नहीं हुआ।
जिसने केवल “प्रेम” के ढाई अक्षर (प्-रे-म) को समझ लिया, वही सच्चा पंडित है।

व्याख्या:
यह दोहा ज्ञान के बाह्य दिखावे और सच्चे प्रेम के अंतरज्ञान में फर्क करता है। कबीर के अनुसार, असली ज्ञान प्रेम, करुणा और आत्मा की अनुभूति में है, न कि केवल ग्रंथों के रटे-रटाए शब्दों में।

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