गुरु की तवज्जुह में विलीन आत्मा: सोने सी चेतना, शून्य में समाधि

सोलेनकी जी आध्यात्मिक दुनिया मे कोई भी संत चाहे किसी महवजब का हो वो अपने के द्वाराl शक्तिपात से ओर उनके संग की संगत से आध्यात्मिकता की चरम सीमा पर विकार रहित हो उच्चकोटि का संत बन जाता है और गुरु उसमे ले हो उसके सभी भौतिक इर आध्यात्मिक केसरी जरते है इनमे से जिनको।मैंने अपने जीवन मे रु बरु देखा ओर जैसाdekha vaisaपाया में संत शिरोमणि ठाकुर रामसिंह जी महात्मा राधा मोहन लाल जी मेरी पिता डॉक्टर चंद्र गुप्ता मौलवी अब्दुल।जलील।खा महात्मासोहराब अलि सहब पहाडिबाबा यहां लिखना चाहूंगा ये संत जिस पर निगाह डाल देते ओर अपना हाथ उस पर रखदेते थे वही सोने में बदल जाता था मैंने इन संतो का सानिध्य पाया है और अनाहद की चरम सीमा पाई है जो लाखो में से एक मे होती है ये तभी संभव है जब गुरु स्वम् सशरीर दीक्षा देता है और तववजुह ओर सिमरन अपने सामने करवाता है ऐसे ही एक महात्मा की निगाह मुझ पर पड़ी मुझेव7 दी बाद होश आया था जब गुरु ज्ञान और समाधि की चरम स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ उसकी चेतना “लघु शून्य” (सूक्ष्म शून्यता) में लय हो जाती है, और वह अपने अहं को भूलकर पूर्ण रूप से अपने ईष्ट में विलीन हो जाता है, तब वह सांसारिक बंधनों से परे केवल अपने आराध्य की स्मृति में स्थित रहता है — एक दिव्य मदहोशी में।

यह अवस्था केवल ज्ञान, ध्यान और समाधि से भी आगे की है — वह एक ऐसे अनुभव में स्थित होता है जो शुद्ध अस्तित्व और पूर्ण आत्मसाक्षात्कार से उपजा होता है। यह अनुभव उसे एक “आध्यात्मिक सम्राट” बना देता है — ऐसा ज्ञानी, जो स्वयं निराकार अनुभव का रूप बन जाता है। और जब वह गुरु अपने अनुभव से ज्ञान को अभिव्यक्त करता है, तो वह ऐसा अमिट सत्य बन जाता है जिसे बिना जाने भी समझा जा सकता है — जैसे पत्थर पर उकेरी गई लकीर।

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