पिताजी साहब यू तो बहुत कम।लोगो को दिक्सित कर अपनी शरण मे लेते थे उ का कहना था कि पहले कुछ नेक संस्कार शिष्य में गुरु के पास आने से पैदा हो और उसमें अध्यात्मत को जानने की इच्छा जागृत हो और वह गुरु को समझ सके कि गुरु क्या होते है और उनमें कितनी दिव्य शक्ति होती है इसके अलावा शिष्य को प्रेम धर्म ज्ञान भक्ति और समाधि का कुछ ज्ञान हो और इसे जॉनने की लालसा हो जब लालसा जाग्रत हो शिष्य में वैराग्य उतपन्न होता तो उसका मोह खत्म हो उसमे वैराग्य आता है और ये ही वैराग्य उसे भक्ति साधना की ओर ले जाता है और प्रेम भक्ति के ज्ञान से उसके अध्यात्म क्या है समझ में आता है और अर्जुन की तरह अपने को गुरु के आगे समर्पित कर ज्ञान ग्रहण करने की प्रबल इच्छा जाहिर कर गुरु का हो जाता है और गुरु अब अपनी मेहर शक्ति से शिष्य को अलौकिक आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करता है जिससे उसमे ज्ञान उतपन्न हो अनाहद उतपन्न हो जाती है और जब ये अनाहद शरीर मे गूंजने लगती है तो वो समझ जाता है कि उसका रोम रोम जाग्रत हो चुका है अब तो मजंजील तक पहुचना है
गुरु शिष्य को जो आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, वह कोई साधारण ऊर्जा नहीं होती। उसे सामान्य भाषा में “शक्ति-संचार” (या शक्तिपात) कहते हैं। आइए सरल शब्दों में समझते हैं:
- चेतना का संचार (Transmission of Consciousness):
गुरु अपनी अनुभूत उच्च चेतना (जो ब्रह्म से जुड़ी होती है) को शिष्य के भीतर प्रवाहित कर देते हैं। इससे शिष्य के भीतर सोई हुई आध्यात्मिक शक्ति (कुंडलिनी या आत्मिक जागृति) सक्रिय हो जाती है। - शुद्ध संकल्प शक्ति (Pure Sankalp Shakti):
गुरु का संकल्प अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली होता है। जब गुरु संकल्प करते हैं कि “यह शिष्य सात्विक, दिव्य और पूर्ण बने”, तो वह संकल्प ऊर्जा बनकर शिष्य के सूक्ष्म शरीर में कार्य करता है और उसे भीतर से बदलने लगता है। - अनुग्रह (Grace):
गुरु कृपा (अनुग्रह) से शिष्य को ऐसा आंतरिक बल मिल जाता है, जो उसकी वासनाओं, विकारों और सांसारिक बंधनों को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। फिर वही शिष्य एक संत, तपस्वी या आत्मज्ञानी बनता है। - ऊर्जा का स्थानांतरण (Energy Transmission):
कई बार गुरु अपनी तपस्या से अर्जित हुई ऊर्जा को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिष्य को स्थानांतरित करते हैं। यह ऊर्जा शिष्य के चित्त और मन को शुद्ध कर, उसे साधना में दृढ़ बना देती है। - आत्मिक जागृति (Spiritual Awakening):
गुरु शिष्य में ऐसा जागरण कर देते हैं कि उसे संसार की नश्वरता और आत्मा की अनंतता का बोध हो जाता है। फिर शिष्य का जीवन-दर्शन ही बदल जाता है।
संक्षेप में कहा जाए तो:
गुरु शिष्य को चेतना, कृपा, शक्ति, और ज्ञान प्रदान करते हैं — यही परिवर्तन की असली कुंजी है। जब शिष्य पूरी श्रद्धा, समर्पण और शुद्ध भाव से गुरु की ऊर्जा को ग्रहण करता है, तब वह भीतर से परिवर्तित होता है और एक दिव्य आत्मा बन जाता है।शक्तिपात (Shaktipat) क्या है?
“शक्ति” यानी ऊर्जा, “पात” यानी गिरना या प्रवाहित होना।
शक्तिपात वह प्रक्रिया है जिसमें गुरु अपनी आत्मिक शक्ति का एक अंश शिष्य के भीतर प्रवाहित करते हैं, जिससे शिष्य की आध्यात्मिक कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है।
यह जागृति शिष्य को —
गहन शांति,
आत्मज्ञान,
भौतिक इच्छाओं से वैराग्य,
प्रेम और करुणा,
सच्चे ज्ञान की ओर अग्रसर करती है।
महत्वपूर्ण बात: शक्तिपात तभी सफल होता है जब शिष्य तैयार हो — यानी उसके भीतर श्रद्धा, विनम्रता, और गुरु के प्रति समर्पण हो।
- शक्तिपात के प्रकार
शास्त्रों में शक्तिपात के मुख्य चार प्रकार बताए गए हैं:
- गुरु कृपा का स्वरूप
गुरु कृपा अज्ञेय (beyond intellect) है। उसे तीन स्तरों पर समझा जा सकता है:
शब्दानुग्राह (Verbal Blessings): गुरु वाणी के माध्यम से मंत्र या उपदेश देकर शिष्य को मार्ग दिखाते हैं।
स्पर्शानुग्राह (Touch Blessings): गुरु शिष्य के शरीर को स्पर्श कर ऊर्जा स्थानांतरित करते हैं (जैसे सिर पर हाथ रखना)।
दृष्ट्यानुग्राह (Vision Blessings): केवल गुरु की दृष्टि से ही शिष्य के भीतर जागरण हो सकता है। (महान संतों की आँखों में अद्भुत शक्ति होती है।)
भावानुग्राह (Inner Transmission): बिना किसी बाहरी माध्यम के, गुरु भीतर से शिष्य को ऊर्जा प्रदान करते हैं (यह सबसे उच्च स्तर है)।5. शिष्य की भूमिका
गुरु चाहे कितनी भी शक्ति दें, अगर शिष्य में निम्नलिखित गुण नहीं हों तो परिवर्तन असंभव है:
श्रद्धा (Faith)
समर्पण (Surrender)
सेवा (Selfless Service)
नम्रता (Humility)
सत्यनिष्ठा (Truthfulness)
शिष्य के भीतर यदि ‘मैं’ (अहंकार) मिट जाए, तो गुरु की ऊर्जा बिना बाधा के उसमें उतर जाती है और उसका सम्पूर्ण कायाकल्प कर देती है।