गृहस्थ आश्रम: कर्म, धर्म और भक्ति का समन्वय

भगवद्गीता में चार आश्रमों—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास—का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, क्योंकि गीता मुख्य रूप से कर्मयोग, भक्तियोग, और ज्ञानयोग पर केंद्रित है। हालांकि, गीता के दर्शन के आधार पर, गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है, क्योंकि यह सामाजिक व्यवस्था का आधार है और कर्मयोग का मुख्य क्षेत्र है।गीता (अध्याय 3, श्लोक 4-8) में श्रीकृष्ण कर्म के महत्व पर जोर देते हैं और कहते हैं कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति परिवार, समाज, और धर्म के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाता है, जो गीता के कर्मयोग के सिद्धांत के अनुरूप है। यह आश्रम अन्य आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास) के लिए भी आधार प्रदान करता है, क्योंकि यह आर्थिक, सामाजिक, और आध्यात्मिक स्थिरता देता है।इसलिए, गीता के संदर्भ में गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है, बशर्ते इसमें कर्म, धर्म, और भक्ति का समन्वय हो।

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