गृहस्थ जीवन में संतत्व की साधना: एक आत्मिक अनुभव

मैंने बहुत से संत वैराग्य लिए आध्यात्मिक जीवन जीते देखा है और बहुत से नेक ओर उच्च कोटि के संतों से मुलाकात भी हुई ओर उनकी कृपा वो भी अध्भुत पाई है और उनसे जो आध्यात्मिक ज्ञान मिला पर जब कभी भी अकेले में रह कर सोचा तो मुझे मेरे जीवन मे कहि न कही कमी पाई वो कमी मेरे करतवयो में या पूर्व जन्म के संस्कारों में हो सकती थी पर मुझे गृहस्थ जीवन मे रह कर पल के ओर माता पिता की शरण मे रह कर आध्यात्मिकता को पाने की लालसा रही और ये आध्यात्मिकता ज्यादा मुझे मेरी मा से मिली चुकी पिताजी गृहस्थ में रह कर गृहस्थ धर्म की पालना करते हुवे पूर्ण संत हुवे पर मा के कर्म इतना महान थे कि वो मेरी प्रेरणा के स्त्रोत्र बने ओर उनकी इसी सीख ने मुझे मातृ पितृ स्मृति में एक उनकी याद में मंदिर बनाने की प्रेरणा मिली और बना लिया मैंने “गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी आध्यात्मिक उन्नति और संतत्व की प्राप्ति” का प्रयास किया है, जिसमें कई संतों का आशीर्वाद रहा मेरे गृहस्थ जीवन मे सन्तता पाने के लिए जो विचार और उदाहरण मुझे ज्ञान के रूप में माता पिता व गुरुदेव ठाकुर रामसिंह जी से मिले वह है ये ।गृहस्थ जीवन और संतत्व: एक आध्यात्मिक
सामान्य धारणा यह है कि संतत्व केवल वैराग्य, सन्यास और तपस्वी जीवन के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। परंतु भारतीय आध्यात्मिक परंपरा और अनेक संतों के जीवन से ओर मेरे माता पिता के गृहस्थ जीवन से यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी कोई व्यक्ति महान संत, योगी और जीवन-मुक्त बन सकता है धर्म और साधना का में उच्चवह स्तिथि के लिए कर्म जरूरी है ये कर्म समाज मे रह कर आध्यात्मिक किताबे ओर गृहस्थ धर्म को निभा कर बिना सन्यास लिए हम पा सकते है
गृहस्थ आश्रम मानव जीवन के चार आश्रमों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। यही आश्रम व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की दिशा में संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है, और यही कर्तव्यबुद्धि धीरे-धीरे उसे आत्मज्ञान की ओर ले जाती है।जहा गुरु की मेहर से या आध्यात्मिकता के ज्ञान से इंसान चरम अवस्था पर नित्य कर्म करते हुवे पहुच सकता है मैं मानता हूं सन्यास धर्म मे इंसान मोह माया से दूर अपने नैतिक जीवन को जी साधना कर चरम अवस्था पर पहुच सकता है वही गृहस्थ धर्म मे विफलता कठिनाई ओर गृहस्थ धर्म के अनुसार गुरु ग्रह कर चरम अवस्था पर पहुच सकते है उनमें मेरे माता पिता और मेंरे भाई बहिन ओर पिताजी के बनाये अनेक शिष्य है और शिष्यो में पहला आदर वाला व्यक्ति श्री भारत भूषण जी है फिर बिमल नाथ खन्ना और उनके बाद उनके प्रिय शिष्य दिनेश जी केशव बहिन अनन्त कोटिया कृष्णा शुक्ला व अन्य कुछ।ओर आये और अपने लालच जे कारण उच्च स्तिथि में नही पहुच सके मैंने भगवत गीता अपनी माँ के श्रीमुख से सुनी है उसमेंभगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।अर्थात – “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।”मेरी सोच के अनुसार अवर निष्काम भाव से ईश्वर के प्रति समर्पित हो गृहस्थ जीवन बिना किसी स्वार्थ के जिया जाए तो मनुष्य अध्यातम के शिखर पर पहुच सकता हमारी सिच के अनुसार ये सोच गृहस्थ जीवन के लिए अत्यंत उपयुक्त है – अपने कर्तव्यों का निष्काम भाव से पालन करना हीजीवन की एक निस्वार्थ आध्यात्मिक नियमित साधना बन जाती है। यहां पर कुछ संतो के विचार उपरोक्त केसमर्थन में है
संत तुकाराम (महाराष्ट्र)
संत तुकाराम एक गृहस्थ थे – परिवार, व्यापार और समाज के उत्तरदायित्वों के बीच रहते हुए भी वे संत बने। उन्होंने गृहस्थ जीवन को त्यागे बिना ही नाम-स्मरण और भक्ति में ऐसी गहराई पाई कि वे संतों की श्रेणी में सर्वोच्च माने जाते हैं।उनकी ये वाणी इस बात को सार्थन देती है
“गृही राहो, पंढरी पाहो”
(गृहस्थ रहो, पर परमात्मा की ओर दृष्टि रखो) इसके अलावा आध्यात्मिक प्रेरणा के स्त्रोत् संत कबीरदास कबीर एक जुलाहे थे, गृहस्थ जीवन में संतान, व्यवसाय और समाज की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने अद्वैत भाव में स्थित होकर “संतत्व” को प्राप्त किया। वे कहते हैं –
“घर में रहो, मन में गहिराई लाओ, बाहर नहीं ग्रगस्थ धर्म के अनुसार आध्यात्मिक जीवन जीना जिसमे भक्ति ज्ञान ध्यान और समाधि से हम ईश्वर को।पा सजते है और विचारों पर नियंत्रण कर एक चरम अवस्था गुरु के ज्ञान के कर पहुच सकते है उन्होंने स्पष्ट किया कि साधना भीतर की प्रक्रिया है, बाहर का दिखावा नही है राजा जनक, मिथिला के महाराज होते हुए भी “विदेह” कहलाए। उन्होंने महर्षि अष्टावक्र से ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञानयोग द्वारा जीवन-मुक्त हुए। वे गृहस्थ, शासक और ज्ञानी संत सभी एक साथ थे। अष्टावक्र गीता में जनक कहते हैं –
“मैं कुछ नहीं करता, सब प्रकृति कर रही है।”
उनकी दृष्टि में निष्क्रियता में भी परम ज्ञान था।गृहस्थ जीवन में कर्म करते हुवे हम योग जी चरम अवस्था को पा सकते है इसके लिए हमे निष्काम कर्म – कर्तव्य करते हुए फल की अपेक्षा न रखना है और इसी पर केंद्रित अपने को करना है गुरु की शरण – आत्मज्ञान की राह में गुरु की कृपा अत्यंत आवश्यक है।जो हमे गूढार्थ समझा सकता है और अपने अनुभव से मार्ग दर्शन करता . है और भक्ति और नाम-स्मरण – भगवान के नाम का स्मरण जीवन की गति बदल सकता है। संतों का संग – सत्संग द्वारा विवेक और वैराग्य का जागरण होता है। मेरी निजी सोच के अनुसार गृहस्थी आध्यात्मिक जीवन मे बाधा न होकर एक नित्य जीवन का कर्म है जो गृहस्थ जीवन कोई बाधा नहीं, बल्कि संतत्व की पाठशाला होती है । इसका प्रमाण भारत के संत इतिहास में स्पष्ट है। तुकाराम, कबीर, जनक, नरसी मेहता, दादू दयाल जैसे संतों ने जीवन को जीते हुए, धर्म निभाते हुए ही मुक्ति पाई।मैं जानता हु की किसी भी इंसान में धर्म की आस्था व उसके प्रति भावना, गुरु की कृपा और ईश्वर का स्मरण – यही गृहस्थ को संत बना सकता है।

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