जब पत्तियाँ बोल उठीं: जीवन का दूसरा पक्ष

आज सुबह तपती सूर्य की
रोशनी
में टहलने के लिए निकला तो
लगा
शरीर गर्मी से तप रहा था गला
प्यास
के मारे सुख रहा था शरीर गर्मीके
मारे पसीना पसीना हो हवा की
तलाश कर रहा था तभी मुझे
एक
बड़ा पेड़ पत्तियों से लदा सडक
के किनारे लगा पत्तो में कुछ
हलचल
नजर आ रही थी ये सोच कुछ
तो
छाव मिली शायद यही कुछ
मुझे
आराम से बैठ कर ठंडी हवा का
शायद कोई झोंका मिल जाये
यहि सोच
मैं पेड़ के नीचे लगे एक पत्थर
पर बैठ गया
ओर हल्की हल्की हवा के झोंके
से अपने को तर पसीने से सूखने
का आभास कर कुछ सोचने लगा
तभी मेरी निगाह पेड़ के नीचे
बिखरी
सुखी हुई पतियों परपडी जो मुरझाए, कर जमीन पर लड़ी इधर उधर भटक रही थी
धूप में जलते, बारिश के आने के इंतजार में फिर से जीवित होने को तरस रही थी
कल तक थी जो हरियाली से लदी टहनी आज वीरान दिख रही थी जो
आज खामोश हैं, बेजान सी बनी कुछ कुछ हवा के झोके से कुछ हरि पत्तियां पेड़ पर हिल डुल रही थी जो

हवा से फड़फड़ाते, कुछ कहने की चाह में,
अपना संदेश व्यक्त कर रही थी की कभी वहां छाँव थी फूलो से लदी टहनियों पर रंगों की बरसात थी पर
आज बिखरी हुई सड़क पर पड़ी है उनकी कोई क़द्र ही नही बस बेजान , जैसे कोई वीरान। शायद सुखी पत्तियों ये सोच रही थी उन पर गुजर रही ये हालात की मार

उनके दुःख की को व्यक्त कर रही थी लेकिन
पेड़ खड़े हैं अब भी, मगर चुपचाप,
सुनते हैं पत्तों की वो आख़िरी सिसकती बात।
कब फिर से आये बरसात ओर उनमे भी जान आजाये जो बिखर के उड़ रही पत्तियां शायद फिर से हरी हो जाये नमन

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