“मिल जाये जब खाक”
अर्थ:
जब इंसान अपने शरीर और जीवन के भौतिक स्वरूप को नश्वर (मरणशील) समझ लेता है। “खाक” यानी मिट्टी, यह संकेत देता है कि हमारा शरीर एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा — यह सत्य स्वीकार कर लेना आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है।
उदाहरण:
जैसे कबीर कहते हैं —
“माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे।”
यह बताता है कि हम जिस शरीर पर अभिमान करते हैं, वह अंततः मिट्टी बन जाएगा।
पंक्ति:
“और दफन दब हो जाये”
अर्थ:
यहाँ “दफन” और “द ब” (दब जाना) से आशय है — जब अहंकार (अहम्, मैंपन) पूरी तरह समाप्त हो जाए।
मनुष्य का सबसे बड़ा बंधन उसका अहंकार होता है — “मैं जानता हूँ”, “मैं श्रेष्ठ हूँ”, “मेरे पास है”, आदि भाव।
उदाहरण:
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“त्यक्त्वा अहंकारम्… शांति को प्राप्त होता है जो अपने आप को कर्ता नहीं मानता।”
अहंकार मिटे बिना सच्ची समझ या गुरु की कृपा नहीं मिलती।
पंक्ति:
“तब मिले गुरु की मेहर अनाहद से”
अर्थ:
जब शरीर की नश्वरता और मन का अहंकार शून्य हो जाए, तभी गुरु की ‘अनाहद मेहर’ (असीम, अविनाशी कृपा) मिलती है।
‘अनाहद’ का अर्थ है जो कभी न रुके — लगातार बहती दिव्य ध्वनि या शक्ति, जो भीतर अनुभव होती है।
उदाहरण:
संत रैदास कहते हैं —
“गुरु की महिमा न जानी जाए, ज्यों ज्यों कहूं त्यों त्यों बढ़ाए।”
यह अनंत है — गुरु की कृपा स्थूल नहीं, सूक्ष्म और दिव्य होती है, जो तभी मिलती है जब शिष्य शून्य हो जाए।
पंक्ति:
“शिष्य उस पर चरण में रम जाए”
अर्थ:
जब शिष्य अहंकार छोड़कर गुरु की कृपा में प्रवेश करता है, तब वह गुरु के चरणों में रम (लीन) हो जाता है।
यह ‘रम जाना’ मतलब केवल भक्ति नहीं — वह अपने अस्तित्व को गुरु में विलीन कर देता है।
गुरु और वह अलग नहीं रहते, ज्ञान का प्रकाश उसे भीतर तक भर देता है।
उदाहरण:
जैसे एक दिया जब बड़े दीपक के सामने रख दिया जाता है, तो वह अलग नहीं दिखता, वह उसी प्रकाश का भाग हो जाता है।
सारांश:
जब मनुष्य अपने शरीर को मिट्टी मानकर, अहंकार को पूरी तरह त्याग कर, गुरु की शरण में जाता है — तब उसे वह दिव्य कृपा (अनाहद मेहर) मिलती है जो उसे जीवन के परम सत्य का बोध कराती है। और फिर वह शिष्य उस कृपा में ऐसा रम जाता है कि वह खुद भी प्रकाश स्वरूप बन जाता है।