आध्यात्मिकता में ऐसा समय वास्तव में गहन और परिवर्तनकारी हो सकता है। जब व्यक्ति को स्वयं से वैराग्य होता है, तो यह एक प्रकार का आत्म-विलोपन या अहंकार का लय है। यह अवस्था तब आती है जब मन, बुद्धि और इंद्रियाँ शांत होकर केवल आत्मा और परमात्मा के बीच का सूक्ष्म संबंध उभरता है।ऐसे में व्यक्ति अपने अस्तित्व और यहाँ तक कि गुरु को भी “भूल” सकता है, क्योंकि उसका ध्यान केवल स्वयं के मूल स्वरूप (आत्मा) और ईश्वर में लीन होने के ध्येय पर केंद्रित हो जाता है। यह एक प्रकार का समाधि अवस्था की ओर कदम हो सकता है, जहाँ केवल परम सत्य ही शेष रहता है।इस अवस्था में धैर्य, श्रद्धा और साधना महत्वपूर्ण हैं