निस्वार्थ कर्म: आनंद और शांति का मार्ग

इस संसार में अधिकतर कार्य स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, क्योंकि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और सुख-सुविधाओं को पहले रखता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि निस्वार्थ कर्म असंभव हैं।

स्वार्थ और निस्वार्थ कर्म में अंतर:

  1. स्वार्थ कर्म – जब कोई कार्य अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, लाभ, या सुख के लिए किया जाए।
  2. निस्वार्थ कर्म – जब कोई कार्य बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के, दूसरों के हित या धर्म के लिए किया जाए।

क्या सभी कर्म स्वार्थपूर्ण होते हैं?
सामान्य रूप से देखा जाए तो अधिकांश कर्मों में स्वार्थ होता है, परंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो निष्काम भाव से कार्य करते हैं। जैसे – माता-पिता अपने बच्चों के लिए प्रेम से त्याग करते हैं, गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देते हैं, संत और समाजसेवी बिना किसी निजी स्वार्थ के लोगों की सेवा करते हैं।

निष्काम कर्म कैसे संभव है?
भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”, अर्थात कर्म करने का अधिकार है, लेकिन फल की चिंता मत करो। जब हम बिना किसी अपेक्षा के कर्म करते हैं और उसे ईश्वर को समर्पित कर देते हैं, तो वह निष्काम कर्म बन जाता है।

मन को दुख क्यों होता है?
जब हम संसार से अपेक्षाएँ रखते हैं कि सब लोग निस्वार्थ बनें या आध्यात्मिक दृष्टि से सोचें, तो निराशा होती है। लेकिन हमें स्वयं निस्वार्थ बनकर एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। धीरे-धीरे लोग प्रेरित होंगे।

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