भंडारे या सत्संग का आयोजन किसी संत की पुण्यतिथि या जयंती पर एक बहुत ही पुण्य कार्य माना जाता है। इसे करने के लिए कुछ महत्ववपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए—
- आयोजन करने की योग्यता
गुरु द्वारा मनोनीत शिष्य निश्चित रूप से इसे आयोजित कर सकते हैं, क्योंकि वे गुरु की आज्ञा और मार्गदर्शन में रहते हैं।इनके अलावा जो शिष्य पूर्ण होते है और गद्दी के मालिक न होने पर उन्को गुरु द्वारा मौखिक अधिकार दे दिया जाता है और वो सक्षम स्तर पर होते है इनमे गुरु पुत्र या गुरु द्वारा इजाजत प्राप्त शिष्य जरूरी नही की गद्दी का मालिक हो गद्दी का मालिक।मोनीटर होता है जिसका कार्य सभी सदस्यों को आध्यात्मिक शारिरिक ओर आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण कर ना होता है यदि उनमे कोई कमी रह गई हो जो गुरु द्वारा पूरी नही की गई हो सभी सक्षम होते है पर उनमे अनाहद व विरक्ति या वीतरागी स्तर पर होना जरूरी है
लेकिन यदि कोई अन्य योग्य और श्रद्धालु शिष्य भी गुरु की आज्ञा या संस्था की अनुमति से यह आयोजन करना चाहे, तो वह भी इसे कर सकता है, बशर्ते कि उसका भाव निष्काम और सेवा भाव से भरा हो।
मुख्य बात यह है कि आयोजन प्रेम, श्रद्धा और अनुशासनपूर्वक किया जाए, जिससे अधिक से अधिक लोग गुरु की मेहेर का पुण्य तिथि या जन्म दिन परउनकी रहमत का आध्यात्मिक लाभ ले सकें।
- गुरु की सूक्ष्म उपस्थिति
गुरु की कृपा और उपस्थिति केवल भौतिक शरीर तक सीमित नहीं होती। वे सूक्ष्म रूप में भी अपने भक्तों के साथ रहते हैं।ओर इस तरह के जो निदपक्ष भंडारे स्वार्थ रहित होते है उनमें गुरु व गुरु खंडन की कृपा मिलती है और सभी आने वालों को आध्यात्मिक चेतना यानी गुरु की यूर्जस मिलती है और दोष मुक्त हो उनके आचरण में अंतर आता है
जब भंडारा या सत्संग सच्चे भाव से किया जाता है, तो गुरु की ऊर्जा, आशीर्वाद और रहमत अवश्य प्राप्त होती है। ओर जो प्रसाद गुरु के अर्पण कर निष्काम भाव से वितरित किया जाता है उसमें सदोगुन अपने आप गुरु मि मेहर से उतपन्न हो जाते है जो खाते समय इंसान के भौतिक शरीर को ऊर्जा दे सात्विक आत्मा को आगे बढ़ने में सहायता करते है
संत महात्माओं का यह कथन प्रसिद्ध है कि “जहां उनके सच्चे अनुयायी भजन-सुमिरन और सेवा में लगते हैं, वहां सद्गुरु ओर उनसे संबंधित सद्गरुओ की सूक्ष्म उपस्थिति स्वतः ही बनी रहती है।”
- भंडारे के उद्देश्य
संतों की कृपा पाना ओर जीवन मे केवली बनने जे लिए संतो की संगत जरूरी है