योग्य गुरु 

जब किसी योग्य गुरु  के सानिध्य में रह कर गुरु की मेहर से शिष्य में नाद उतपन्न हो वो नाद-लय’ में डूबा हुआ रहता है इस स्तिथि  में साधक मैं को भूल गुरु में लय रहता है और इस नाद से  साधक में अनेक अवगुन  खत्म हो सात्विक हो जाता गया ओर उसमे अन्य विकार   खत्म हो वो सात्विक हो जाता है और इस नाद  की  उपलब्धि  वह नि:शब्द हो जाता है और उसका मन  ओर आत्मा में परमब्रह्म के परमात्मततत्त्व का अनुभव होने  लगता है। जब तक नाद है, तभी तक मन का अस्तित्त्व है। नाद के समापन होने पर मन भी ‘अमन,’अर्थात् ‘शून्यवत’ हो जाता है-  इस प्रकार सतत नाद का अभ्यासरत योगी जाग्रत, स्वप्न तथा सुषप्ति आदि अवस्थाओं से मुक्त होकर सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है और मान-अपमान से परे होकर समाधि द्वारा समस्त जड़-संगम का परित्याग कर ‘ब्रह्ममय’ हो जाता है-

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