रूह की रोशनी में मिटती हैं जाति की रेखाएँ

तत्वातोतदेह: भारतीय दर्शन में मूलभूत सिद्धांतों की देह में अभिव्यक्ति
I. तत्वातोतदेह: एक समग्र दार्शनिक दृष्टिकोण
“तत्वातोतदेह” संस्कृत का एक गहन यौगिक शब्द है, जो ऐसी देह (“देह”) को संदर्भित करता है जो “तत्त्वों” या मूलभूत सिद्धांतों से “ओत-प्रोत” (“ओत” शब्द “ओत-प्रोत” से आया है, जिसका अर्थ है आपस में गुंथा हुआ या व्याप्त) है । यह शब्द भारतीय दर्शन में शरीर की प्रकृति को समझने के लिए केंद्रीय है।
‘तत्त्व’ एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ ‘वह होना’, ‘सिद्धांत’, ‘यथार्थ’ या ‘सत्य’ है । यह उन मूलभूत तत्वों या सिद्धांतों को दर्शाता है जो वास्तविकता का निर्माण करते हैं। भारतीय दर्शन में, तत्त्वों को परम सत्ता, आत्माओं और ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने के लिए आधारभूत अवधारणाओं के रूप में उपयोग किया जाता है । दूसरी ओर, ‘देह’ शरीर को संदर्भित करता है, जिसे अक्सर क्षणभंगुर और क्षय के अधीन समझा जाता है (शीर्यते इति शरीरम् – “जो हर पल क्षीण होता है, वह शरीर है”) । इस प्रकार, “तत्वातोतदेह” इस दार्शनिक विचार को समाहित करता है कि मानव शरीर, अपनी क्षणिक प्रकृति के बावजूद, केवल एक भौतिक संरचना नहीं है, बल्कि अस्तित्व के गहरे सिद्धांतों से आंतरिक रूप से बुना हुआ और व्याप्त है।
तत्त्व-देह के संबंध की यह अवधारणा भारतीय दर्शन के विभिन्न विद्यालयों में अस्तित्व, स्वयं (आत्मा/पुरुष), और ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने के लिए केंद्रीय है । यह एक ऐसा ढाँचा प्रदान करती है जिसके माध्यम से व्यक्तिगत सूक्ष्म जगत (शरीर) का ब्रह्मांडीय स्थूल जगत (ब्रह्मांड) से संबंध समझा जा सकता है। तत्त्व-देह की यह समझ मुक्ति (मोक्ष) और आध्यात्मिक प्राप्ति की खोज के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बंधन के तंत्र और अतिक्रमण के मार्ग को स्पष्ट करती है । भारतीय दार्शनिक परंपरा में, शरीर को केवल एक भौतिक इकाई के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा जाता है जिसके माध्यम से आत्मा अपने कर्मों का अनुभव करती है और आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ती है।
यह विचार कि शरीर मूलभूत सिद्धांतों से बना है, भारतीय दर्शन की समग्र और एकीकृत प्रकृति को दर्शाता है। “तत्वातोतदेह” शब्द का निर्माण ही इस पूर्व-मौजूदा दार्शनिक समझ को इंगित करता है कि शरीर मूलभूत सिद्धांतों से अलग नहीं है। यह केवल एक भौतिक विवरण नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक कथन है। विभिन्न विद्यालयों (सांख्य, शैव, वेदांत, जैन धर्म) द्वारा वास्तविकता के मूलभूत तत्वों (तत्त्वों) और शरीर के उनके घटकों (पंचमहाभूतों) के रूप में बार-बार जोर देना एक गहरे एकीकृत विश्वदृष्टि को इंगित करता है जहां पदार्थ और आत्मा को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही अंतर्निहित सिद्धांतों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप में देखा जाता है। यह पश्चिमी दार्शनिक परंपराओं के विपरीत है जो अक्सर मन/आत्मा को शरीर से अलग करती हैं। यह एकीकृत दृष्टिकोण आयुर्वेद जैसे समग्र स्वास्थ्य प्रणालियों और योग जैसी आध्यात्मिक प्रथाओं का आधार बनता है, जिनका उद्देश्य समग्र कल्याण और आध्यात्मिक प्रगति के लिए शरीर के भीतर इन्हीं तत्वों को संतुलित करना है। यह दर्शाता है कि शारीरिक बीमारियाँ या मानसिक असंतुलन अलग-थलग घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि अंतर्निहित तत्त्वों में असंतुलन के लक्षण हैं।
II. तत्त्व की अवधारणा: वास्तविकता के मूलभूत सिद्धांत
संस्कृत शब्द ‘तत्त्व’ (तत्त्व) का शाब्दिक अर्थ ‘वह होना’ (तत् से ‘वह’ और त्व से ‘होना’) है। यह एक मूलभूत सिद्धांत, वास्तविकता, सत्य या सार को दर्शाता है । भारतीय दर्शन में, तत्त्व परम सत्ता (ब्रह्म/ईश्वर), व्यक्तिगत आत्माओं (आत्मा/पुरुष), और ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने के लिए उपयोग की जाने वाली आधारभूत अवधारणाएँ हैं । ‘तत्त्व’ की अवधारणा ‘तत्त्व दर्शन’ या स्वयं ‘दर्शन’ के लिए केंद्रीय है, जो मानवीय दुखों को कम करने के लिए वास्तविकता के ज्ञान की खोज है ।
सांख्य दर्शन में तत्त्व: 25 सिद्धांत
सांख्य भारतीय दर्शन के सबसे पुराने विद्यालयों में से एक है और यह 25 तत्त्वों की गणना करता है । ये 25 तत्त्व ब्रह्मांड और व्यक्तिगत अस्तित्व की संरचना और उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं ।

  • पुरुष: चेतन सिद्धांत, शुद्ध आत्मा या आत्मन, जो प्रकृति और उसके विकास से भिन्न है। यह 25वाँ तत्त्व है और प्रकृति का उत्पाद नहीं है ।
  • प्रकृति: अव्यक्त आदिम पदार्थ, अचेतन रचनात्मक सिद्धांत, जिससे अन्य सभी 23 तत्त्व विकसित होते हैं ।
  • महत् (बुद्धि): प्रकृति का पहला विकास, ब्रह्मांडीय बुद्धि या विवेक का प्रतिनिधित्व करता है ।
  • अहंकार (अहं): महत् से विकसित होता है, व्यक्तिगत स्वयं या अहंकार की भावना का प्रतिनिधित्व करता है ।
  • मनस (मन): अहंकार से विकसित होता है, संवेदी मन जो संवेदी डेटा को संसाधित करता है ।
  • दस इंद्रियाँ (अंग):
  • पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (संवेदी अंग): घ्राण (नाक) – गंध, रसना (जीभ) – स्वाद, चक्षु (आँख) – दृष्टि, त्वक् (त्वचा) – स्पर्श, श्रोत्र (कान) – ध्वनि ।
  • पाँच कर्मेंद्रियाँ (क्रिया अंग): पायु (गुदा) – उत्सर्जन, उपस्थ (यौन अंग) – प्रजनन, पाद (पैर) – चलना, पाणि (हाथ) – पकड़ना, वाक् (मुँह) – बोलना ।
  • पाँच तन्मात्राएँ (सूक्ष्म तत्व): स्थूल तत्वों के अनुरूप संवेदी अनुभव के सूक्ष्म रूप: गंध (गंध), रस (स्वाद), रूप (रूप), स्पर्श (स्पर्श), शब्द (ध्वनि) ।
  • पाँच महाभूत (स्थूल तत्व): पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश/ईथर। ये तन्मात्राओं की स्थूल अभिव्यक्तियाँ हैं ।
  • वर्गीकरण: इन 24 विकासों (पुरुष को छोड़कर) को अक्सर ‘आत्म तत्त्व’ या ‘अशुद्ध तत्त्व’ (अशुद्ध) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, क्योंकि वे ब्रह्मांड और भौतिक शरीर का निर्माण करते हैं, आत्मा के अस्तित्व में सहायता करते हैं ।
    शैव दर्शन में तत्त्व: 36 सिद्धांत
    शैव दर्शन सांख्य के 25 तत्त्वों की सूची को 36 तक विस्तारित करते हैं, ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विघटन की व्याख्या करने के लिए एक अधिक विस्तृत पदानुक्रमित संरचना प्रदान करते हैं । इन तत्त्वों को आमतौर पर तीन समूहों में विभाजित किया जाता है:
  • शुद्ध तत्त्व: परम सत्ता के आंतरिक पहलुओं का वर्णन करते हैं (जैसे, शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, सद्विद्या)। ये माया के दायरे से परे हैं ।
  • शुद्धाशुद्ध तत्त्व (विद्या तत्त्व): आत्माओं को उनकी मुक्ति के लिए सहायता करने वाले “उपकरण” के रूप में वर्णित हैं। इनमें माया तत्त्व (सर्वशक्तिमान की अंतिम अभिव्यक्ति) और पुरुष तत्त्व (आत्मा) शामिल हैं ।
  • अशुद्ध तत्त्व: ये सांख्य दर्शन के 24 तत्त्व हैं, जिनमें प्रकृति और उसके विकास (बुद्धि, अहंकार, मनस, इंद्रियाँ, तन्मात्राएँ, महाभूत) शामिल हैं। ये ब्रह्मांड और भौतिक शरीर का निर्माण करते हैं ।
    सांख्य और शैव दर्शन में तत्त्वों का विस्तृत विवरण वास्तविकता की एक पदानुक्रमित, विकासवादी प्रक्रिया को सूक्ष्म (प्रकृति, महत्) से स्थूल (महाभूत) तक प्रकट करता है। यह केवल एक सूची नहीं है; यह एक ब्रह्मांडीय मॉडल है। यह तथ्य कि “अशुद्ध तत्त्व” 24 सबसे निचले तत्त्व हैं जो व्यक्तिगत चेतना से विकसित होते हैं , ब्रह्मांडीय सिद्धांतों और व्यक्तिगत अनुभव के बीच सीधा संबंध दर्शाता है। “शुद्धाशुद्ध तत्त्व” (विद्या तत्त्व) मुक्ति के लिए “उपकरण” हैं , जो आध्यात्मिक उद्देश्यों की ओर एक उद्देश्यपूर्ण विकास का सुझाव देते हैं। यह पदानुक्रमित संरचना यह दर्शाती है कि स्थूल भौतिक संसार और शरीर अधिक सूक्ष्म सिद्धांतों की मात्र अभिव्यक्तियाँ हैं। इस पदानुक्रम को समझना आध्यात्मिक अभ्यास के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बताता है कि स्थूल (जैसे शरीर, इंद्रियाँ) को नियंत्रित करके, कोई सूक्ष्म (मन, अहंकार) को प्रभावित कर सकता है, और अंततः उन्हें मुक्ति के लिए पार कर सकता है। इसका यह भी अर्थ है कि स्थूल स्तर पर असंतुलन (शारीरिक बीमारी) के अक्सर सूक्ष्म स्तर (मानसिक/भावनात्मक स्थितियाँ, कर्मिक छाप) में असंतुलन में निहित होते हैं।
    अंतःकरण (बुद्धि, अहंकार, मनस) का वर्णन “सीमित पुरुष के भीतर चेतना” के रूप में किया गया है जो ‘चित्त’ का निर्माण करता है , और ये प्रकृति के पहले विकास हैं, यह दर्शाता है कि चेतना (भले ही सीमित हो) “अशुद्ध तत्त्वों” की अभिव्यक्ति में केंद्रीय भूमिका निभाती है। संवेदी और मोटर अंग, और यहाँ तक कि सूक्ष्म तत्व भी अहंकार से विकसित होते हैं क्योंकि यह सात्विक, राजसिक और तामसिक तरीकों से संशोधित होता है । यह दर्शाता है कि हमारे अनुभव की गई वास्तविकता की प्रकृति हमारी चेतना और अहंकार के गुणों से आकार लेती है। यह व्यक्तिगत रूप से अनुभव की गई वास्तविकता की व्यक्तिपरक प्रकृति में एक गहरा अवलोकन है। यह बताता है कि “अशुद्ध” या भौतिक संसार बाहरी और स्वतंत्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति की चेतना और अहंकारिक संशोधनों से प्रभावित एक विकास है। यह ध्यान और आत्म-जाँच जैसी प्रथाओं के लिए दार्शनिक आधार बनाता है, जिनका उद्देश्य अंतःकरण को शुद्ध करना और इन तत्त्वों द्वारा लगाई गई सीमाओं को पार करना है, जिससे उच्च वास्तविकताओं का प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
    अन्य परंपराओं में तत्त्व
  • वेदांत: सांख्य या शैव की तरह तत्त्वों की गणना न करते हुए, वेदांत ब्रह्म को परम तत्त्व या वास्तविकता के रूप में केंद्रित करता है। वेदांत में तत्त्व की समझ वास्तविकता के सार या सत्य से संबंधित है जो मुक्ति की ओर ले जाती है, अक्सर अस्तित्व की द्वैतता को पार करती है । ब्रह्म को स्थायी, दोष रहित, अनादि और अनंत, और मन की समझ से परे वर्णित किया गया है ।
  • जैन धर्म: जैन दर्शन में, तत्त्व आवश्यक सत्यों को दर्शाता है जो धार्मिक समझ और ज्ञान के लिए दार्शनिक सिद्धांतों का मार्गदर्शन करते हैं। यह पूछताछ के माध्यम से चिकित्सकों द्वारा अपनाए गए मूल सार पर जोर देता है, आध्यात्मिक विकास और विवेक में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। जैन धर्म आत्मा (आत्मा) और पदार्थ (पुद्गल) दोनों को तत्त्व के रूप में पहचानता है ।
  • पुराण: तत्त्व को मूलभूत सिद्धांतों या तत्वों के रूप में संदर्भित करते हैं जो वास्तविकता का निर्माण करते हैं, जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र दोनों शामिल हैं, अक्सर उनकी संख्या 23, 24 या 25 होती है ।
    तालिका: दार्शनिक विद्यालयों में तत्त्व वर्गीकरण
    | दार्शनिक विद्यालय | तत्त्वों की संख्या | प्रमुख तत्त्व/अवधारणाएँ | प्राथमिक ध्यान |
    |—|—|—|—|
    | सांख्य | 25 | पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, मनस, इंद्रियाँ, तन्मात्राएँ, महाभूत | ब्रह्मांड विज्ञान और व्यक्तिगत अस्तित्व |
    | शैव | 36 | शुद्ध (शिव, शक्ति), शुद्धाशुद्ध (माया, पुरुष), अशुद्ध (सांख्य के 24) | ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति और मुक्ति |
    | वेदांत | (ब्रह्म परम तत्त्व के रूप में) | ब्रह्म (परम वास्तविकता), आत्मा | परम वास्तविकता |
    | जैन धर्म | (आत्मा और पुद्गल) | जीव (आत्मा), अजीव (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) | मुक्ति के लिए आवश्यक सत्य |
    यह तालिका विभिन्न दार्शनिक विद्यालयों में तत्त्वों की संख्या और वर्गीकरण के बारे में खंडित जानकारी को एक सुपाच्य प्रारूप में समेकित करती है । यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि तत्त्व की अवधारणा, सार्वभौमिक होते हुए भी, प्रत्येक विद्यालय द्वारा अलग-अलग व्याख्या और विस्तारित की जाती है, जो उनकी अनूठी आध्यात्मिक स्थितियों को प्रकट करती है (उदाहरण के लिए, सांख्य का द्वैतवाद बनाम शैव का अधिक विस्तृत पदानुक्रम बनाम वेदांत का अद्वैतवाद)। प्रत्येक विद्यालय के लिए प्रमुख तत्त्वों को साथ-साथ प्रस्तुत करके, पाठक प्रत्येक दार्शनिक प्रणाली के भीतर विशिष्ट तत्वों और उनकी भूमिकाओं को तुरंत समझ सकते हैं, जो समग्र “तत्वातोतदेह” अवधारणा को कई कोणों से समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
    III. देह की अवधारणा: भारतीय विचार में शरीर
    शरीर के लिए ‘शरीर’ शब्द ‘शीर्यते इति शरीरम्’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है “जो हर पल क्षय होता है या नष्ट होता है।” यह भारतीय विचार में भौतिक शरीर की क्षणभंगुर और अस्थायी प्रकृति को उजागर करता है । अपनी क्षणभंगुरता के बावजूद, शरीर को आत्मा के अनुभवों और आध्यात्मिक यात्रा के लिए एक वाहन या उपकरण माना जाता है ।
    ‘शरीर’ की व्युत्पत्ति (जो हर पल क्षय होता है) तुरंत शरीर की क्षणभंगुर प्रकृति को स्थापित करती है। यह आयुर्वेद की ‘त्रिदोष’ (वात, पित्त, कफ) की समझ से पुष्ट होता है , जो लगातार बातचीत और बदलते रहते हैं, जिससे उनके संतुलन के आधार पर स्वास्थ्य या बीमारी होती है। ‘सप्तधातु’ (सात ऊतक) की अवधारणा भी निर्माण और क्षय की निरंतर प्रक्रिया को दर्शाती है। शरीर का यह गतिशील दृष्टिकोण स्वास्थ्य और आध्यात्मिक अभ्यास के लिए गहरा महत्व रखता है। यह बताता है कि स्वास्थ्य एक निश्चित अवस्था नहीं है, बल्कि निरंतर परिवर्तन के बीच संतुलन बनाए रखने की एक सतत प्रक्रिया है। आध्यात्मिक साधकों के लिए, यह भौतिक रूप से अनासक्ति को मजबूत करता है और क्षणभंगुर शरीर से परे शाश्वत स्वयं (आत्मा) को देखने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह यह भी स्पष्ट करता है कि योग और आयुर्वेद जैसे अभ्यास शरीर की संतुलन और नवीकरण की प्राकृतिक प्रक्रियाओं का समर्थन करने के लिए दैनिक दिनचर्या और सचेत जीवन शैली पर जोर क्यों देते हैं।
    पंचमहाभूत (पाँच महान तत्व): स्थूल शरीर के मूलभूत घटक
    भारतीय दर्शन और आयुर्वेद सार्वभौमिक रूप से मानव शरीर को पाँच मूलभूत तत्वों से बना मानते हैं, जिन्हें ‘पंचमहाभूत’ (पृथ्वी, जल, तेज/अग्नि, आकाश, वायु) के रूप में जाना जाता है । ये तत्व केवल भौतिक पदार्थ नहीं हैं, बल्कि मूलभूत गुणों और ऊर्जाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं:
  • पृथ्वी: ठोसता, संरचना और स्थिरता का प्रतिनिधित्व करती है। हड्डियाँ, मांसपेशियाँ, त्वचा और दाँत बनाती है ।
  • जल: तरलता, सामंजस्य और पोषण का प्रतिनिधित्व करता है। रक्त, लसीका, पसीना और अन्य शारीरिक तरल पदार्थ बनाता है ।
  • अग्नि (तेज): परिवर्तन, चयापचय और गर्मी का प्रतिनिधित्व करती है। पाचन, दृष्टि और शरीर के तापमान को नियंत्रित करती है ।
  • वायु: गति, परिसंचरण और श्वसन का प्रतिनिधित्व करती है। श्वास (प्राण), रक्त परिसंचरण और तंत्रिका आवेगों को नियंत्रित करती है ।
  • आकाश (ईथर/अंतरिक्ष): शून्यता, स्थान और विस्तार का प्रतिनिधित्व करती है। शरीर की गुहाओं, कानों, कोशिकाओं और तंत्रिकाओं में पाई जाती है ।
    शरीर में इन तत्वों का अनुपात अक्सर उद्धृत किया जाता है, उदाहरण के लिए, जल 72% और पृथ्वी 12% ।
    मानव शरीर के ब्रह्मांड के समान पंचमहाभूतों से बने होने का लगातार दावा केवल एक काव्यात्मक कथन नहीं है, बल्कि एक मूलभूत सिद्धांत है। यह गहरा संबंध यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाले नियम शरीर को भी नियंत्रित करते हैं। आयुर्वेद, ‘त्रिदोषों’ को सीधे ‘पंचमहाभूतों’ से प्राप्त करके , ब्रह्मांडीय तत्वों को शारीरिक कार्यों से स्पष्ट रूप से जोड़ता है। यह समझ आयुर्वेदिक निदान और उपचार का आधार बनती है, जहाँ शरीर में असंतुलन को बाहरी कारकों (आहार, जीवन शैली, पर्यावरण) को समायोजित करके संबोधित किया जाता है जो इन तत्वों से भी बने होते हैं। यह बताता है कि वास्तविक उपचार में व्यक्ति की आंतरिक मौलिक संरचना को बाहरी ब्रह्मांडीय शक्तियों के साथ संरेखित करना शामिल है। यह मनोवैज्ञानिक कल्याण तक भी फैला हुआ है, क्योंकि मानसिक अवस्थाओं को भी मौलिक संतुलन की अभिव्यक्तियों के रूप में देखा जाता है (उदाहरण के लिए, वात असंतुलन से चिंता होती है )।
    अंतःकरण (आंतरिक अंग): सूक्ष्म शरीर के घटक
    ‘अंतःकरण’ चार आंतरिक तत्त्वों के लिए एक सामूहिक शब्द है: प्रकृति, बुद्धि, अहंकार और मनस ।
  • बुद्धि (विवेक/समझ): विवेक और समझ की क्षमता, प्रकृति का पहला विकास ।
  • अहंकार (अहं): व्यक्तिगत स्वयं की भावना, बुद्धि से भिन्न ।
  • मनस (मन): संवेदी मन, जो इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया का अनुभव करता है ।
  • चित्त: अक्सर सीमित पुरुष के भीतर बुद्धि, अहंकार और मनस द्वारा गठित सामूहिक चेतना माना जाता है ।
    इंद्रियाँ (संवेदी और मोटर अंग) और तन्मात्राएँ (सूक्ष्म तत्व)
    दस ‘इंद्रियाँ’ (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ – jñānendriya, और पाँच कर्मेंद्रियाँ – karmendriya) अहंकार से विकसित होती हैं । पाँच ‘तन्मात्राएँ’ (सूक्ष्म तत्व – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) मनस के सबसे तामसिक कार्य हैं और मन में संबंधित स्थूल तत्वों के प्रतिबिंब का प्रतिनिधित्व करती हैं ।
    अद्वैत वेदांत में तीन शरीर (शरीर त्रय)
    उपनिषदों द्वारा समर्थित अद्वैत वेदांत के अनुसार, मानव तीन शरीरों से बना है :
  • कारण शरीर: अव्यक्त अवस्था, सभी अनुभवों का बीज, गहरी नींद और अज्ञान (अविद्या) से जुड़ा हुआ। यह सबसे सूक्ष्म और अन्य दो शरीरों का कारण है ।
  • सूक्ष्म शरीर: कारण शरीर से विकसित होता है। यह अंतःकरण (बुद्धि, मनस, अहंकार), पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों और पाँच प्राणों (महत्वपूर्ण वायु) से बना है। यह अनुभव का वाहन है (सपने, विचार, भावनाएँ) ।
  • स्थूल शरीर: सूक्ष्म शरीर से विकसित होता है। यह भौतिक शरीर है, पंचमहाभूतों से बना है, और जागृत अवस्था का अनुभव करने का माध्यम है ।
    तैत्तिरीय उपनिषद आगे पाँच कोशों (आवरणों) का वर्णन करता है जो अक्सर इन तीन शरीरों के अनुरूप होते हैं, एक अधिक विस्तृत मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक शरीर रचना प्रदान करते हैं ।
    शरीर संरचना पर आयुर्वेदिक परिप्रेक्ष्य
    आयुर्वेद, भारतीय चिकित्सा की पारंपरिक प्रणाली, मानव शरीर को ब्रह्मांड का एक सूक्ष्म जगत मानती है, जो मूल रूप से पंचमहाभूतों से बना है ।
  • त्रिदोष (वात, पित्त, कफ): पंचमहाभूत विभिन्न अनुपातों में मिलकर तीन मूलभूत जैविक ऊर्जाएँ या ‘दोष’ बनाते हैं, जो सभी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कार्यों को नियंत्रित करते हैं ।
  • वात दोष: वायु और आकाश से बनता है। शरीर में गति, परिसंचरण और तंत्रिका तंत्र के कार्यों को नियंत्रित करता है। असंतुलन से गठिया, सूखापन और चिंता जैसी स्थितियाँ हो सकती हैं ।
  • पित्त दोष: अग्नि और जल से बनता है। पाचन, चयापचय और परिवर्तन को नियंत्रित करता है। असंतुलन से सूजन, क्रोध और त्वचा की समस्याएँ हो सकती हैं ।
  • कफ दोष: जल और पृथ्वी से बनता है। संरचना, स्नेहन और स्थिरता को नियंत्रित करता है। असंतुलन से सुस्ती, जमाव और वजन बढ़ना हो सकता है ।
  • सप्तधातु (सात ऊतक): रस (ऊतक द्रव), रक्त (खून), मांस (मांसपेशी), मेद (वसा), अस्थि (हड्डियाँ), मज्जा (मज्जा), और शुक्र (प्रजनन ऊतक) ।
  • त्रिमाल (तीन अपशिष्ट उत्पाद): पुरीष (मल), मूत्र (पेशाब), और स्वेद (पसीना) ।
    तालिका: पंचमहाभूत, शारीरिक घटक और आयुर्वेदिक दोष
    | पंचमहाभूत | शरीर में भूमिका/प्रतिनिधित्व | संबंधित आयुर्वेदिक दोष | दोष के कार्य | असंतुलन के लक्षण (उदाहरण) |
    |—|—|—|—|—|
    | पृथ्वी (Prithvi) | हड्डियाँ, मांसपेशियाँ, त्वचा, दाँत | कफ (पृथ्वी + जल) | स्थिरता, पोषण | थकान, वजन बढ़ना |
    | जल (Jala) | रक्त, लसीका, तरल पदार्थ | कफ (पृथ्वी + जल), पित्त (अग्नि + जल) | स्थिरता, पोषण; पाचन, ऊर्जा | अस्थमा, प्रजनन समस्याएँ, त्वचा की समस्याएँ |
    | अग्नि (Agni) | पाचन, तापमान, दृष्टि | पित्त (अग्नि + जल) | पाचन, ऊर्जा | सूजन, क्रोध |
    | वायु (Vayu) | श्वसन, परिसंचरण, गति | वात (वायु + आकाश) | गति, परिसंचरण | गठिया, सूखापन, चिंता |
    | आकाश (Akasha) | शरीर की गुहाएँ, कान, नसें | वात (वायु + आकाश) | गति, परिसंचरण | तनाव, एकाग्रता की कमी |
    यह तालिका पंचमहाभूतों को भौतिक शरीर और फिर आयुर्वेदिक त्रिदोषों से जोड़ती है। यह दर्शन, ब्रह्मांड विज्ञान और चिकित्सा के बीच इस महत्वपूर्ण अंतःविषय संबंध को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। यह शरीर की एक समग्र समझ प्रदान करती है कि स्थूल तत्व शरीर में कैसे प्रकट होते हैं, न केवल निष्क्रिय पदार्थ के रूप में बल्कि गतिशील शक्तियों के रूप में जो दोषों के माध्यम से स्वास्थ्य और बीमारी को नियंत्रित करते हैं। असंतुलन के लक्षणों को शामिल करके, यह तत्त्वों की सैद्धांतिक समझ को व्यावहारिक स्वास्थ्य निहितार्थों से सीधे जोड़ता, जिससे अवधारणा अधिक प्रासंगिक हो जाती है और आयुर्वेद और योग में संतुलन बनाए रखने के लिए इसकी वास्तविक दुनिया की प्रासंगिकता प्रदर्शित होती है ।
    IV. तत्वातोतदेह: सिद्धांतों और शरीर का अंतर्गुंथा हुआ संबंध
    तत्त्व, विशेष रूप से 24 या 36 सिद्धांत, सभी वास्तविकता के मूलभूत निर्माण खंड हैं, चाहे वह ब्रह्मांडीय हो या व्यक्तिगत। स्थूल भौतिक शरीर (‘स्थूल शरीर’) सीधे ‘पंचमहाभूतों’ से बनता है, जो स्वयं सूक्ष्म तत्त्वों के विकास हैं । सूक्ष्म शरीर (‘सूक्ष्म शरीर’), जिसमें ‘अंतःकरण’ (मन, बुद्धि, अहंकार) और ‘इंद्रियाँ’ (संवेदी और मोटर अंग) शामिल हैं, भी तत्त्वों से बना है, यह दर्शाता है कि हमारे संज्ञानात्मक और संवेदी अनुभव भी इन मूलभूत सिद्धांतों में निहित हैं । यह सबसे सूक्ष्म, अव्यक्त सिद्धांतों से लेकर स्थूल, व्यक्त भौतिक शरीर तक एक सहज निरंतरता को दर्शाता है।
    भारतीय दर्शन सार्वभौमिक रूप से जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) को बंधन के रूप में और इसके समापन को मुक्ति (मोक्ष) के रूप में देखता है । आत्मा का शरीर, प्राण (जीवन शक्ति), इंद्रियों (इंद्रियाँ), और आंतरिक अंग (अंतःकरण) के साथ उलझाव ‘अविद्या’ (अज्ञान) और ‘कर्म’ (क्रियाएँ और उनके संचित प्रभाव) के कारण होता है । कर्म और आत्मा के बीच का संबंध अनादि माना जाता है, यह स्पष्ट करता है कि एक शुद्ध चेतन प्राणी कर्म में क्यों उलझ जाता है । मुक्ति के लिए इस ‘कर्म-मल’ (कर्म की अशुद्धि) का पूर्ण विनाश आवश्यक है ।
    कर्म और अविद्या के कारण शरीर बंधन का स्रोत होने के बावजूद, इसे आध्यात्मिक विकास और अंतिम मुक्ति के लिए आवश्यक वाहन भी माना जाता है । तत्त्वों की समझ (‘तत्त्व ज्ञान’) व्यक्तिगत आत्मा (‘जीवात्मा’) को अपने शुद्ध, वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद करती है । उपनिषद इस बात पर जोर देते हैं कि ‘आत्मा’ (स्वयं) संवेदी दुनिया, शरीर, मन और बुद्धि से परे है, फिर भी इन ‘तत्त्वों’ को समझने के माध्यम से ही कोई अंततः परम ‘तत्त्व’ (ब्रह्म) को प्राप्त कर सकता है । इसलिए, शरीर अनुभव के एक क्षेत्र के रूप में कार्य करता है जहाँ आत्मा अपने कर्मों को पूरा कर सकती है और मुक्ति के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर सकती है।
    यहां एक मूलभूत विरोधाभास प्रकट होता है: शरीर, तत्त्वों से बना, ‘कर्म’ और ‘अविद्या’ का स्थल है, जिससे ‘बंधन’ होता है । फिर भी, यह वही साधन भी है जिसके माध्यम से ‘तत्त्व ज्ञान’ और ‘भक्ति’ जैसी आध्यात्मिक प्रथाओं को ‘मोक्ष’ प्राप्त करने के लिए किया जाता है । शरीर क्षणभंगुर है , लेकिन इसके भीतर की आत्मा स्थायित्व की तलाश करती है। यह विरोधाभास भारतीय दर्शन में मानव जीवन की अनिवार्य भूमिका को उजागर करता है। शरीर को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसे एक अस्थायी, फिर भी महत्वपूर्ण, उपकरण के रूप में समझा जाना चाहिए। लक्ष्य शरीर को नष्ट करना नहीं है, बल्कि इसके तात्विक घटकों को शुद्ध करके और उनकी वास्तविक प्रकृति को समझकर इसकी सीमाओं को पार करना है, जिससे कर्म के चक्र को तोड़ा जा सके। यह परिप्रेक्ष्य शारीरिक त्याग के बजाय शरीर के साथ सचेत जुड़ाव को प्रोत्साहित करता है, इसे आध्यात्मिक विकास के लिए एक पवित्र पात्र के रूप में देखता है।
    जबकि सांख्य और शैव तत्त्वों की विकासवादी संरचना का विस्तार से वर्णन करते हैं जो शरीर का निर्माण करते हैं , रामानुज का विशिष्टाद्वैत एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जहाँ संपूर्ण ब्रह्मांड, जिसमें व्यक्तिगत आत्माएँ और पदार्थ शामिल हैं, ईश्वर का “शरीर” बनाता है । यह सांख्य के अधिक अवैयक्तिक प्रकृति-पुरुष द्वैतवाद से एक महत्वपूर्ण बदलाव है। जैन धर्म भी आत्मा और पदार्थ (पुद्गल) को तत्त्व के रूप में देखता है, जिसमें आत्मा शरीर के साथ फैलती/सिकुड़ती है । यह विविधता भारतीय दार्शनिक विचार की समृद्धि और जटिलता को प्रदर्शित करती है। यह दर्शाता है कि जबकि “तत्त्व-देह” की मूल अवधारणा सार्वभौमिक है, इसकी आध्यात्मिक व्याख्या काफी भिन्न होती है, जिससे मुक्ति के विभिन्न मार्ग बनते हैं। उदाहरण के लिए, रामानुज का दृष्टिकोण ईश्वर के प्रति भक्ति और समर्पण पर जोर देता है, जिनके शरीर में सभी तत्त्व शामिल हैं, जबकि सांख्य पुरुष और प्रकृति के बीच विवेकी ज्ञान पर जोर देता है। यह दर्शाता है कि विभिन्न आध्यात्मिक मार्ग व्यक्तियों के इस मूलभूत संबंध की अंतर्निहित समझ के आधार पर अधिक प्रतिध्वनित हो सकते हैं।
    V. व्यावहारिक अनुप्रयोग: योग और आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से शरीर में तत्त्वों का संतुलन
    मानव शरीर, पंचमहाभूतों की एक संरचना होने के कारण, स्वास्थ्य और जीवन शक्ति के लिए इन तत्वों को संतुलित अवस्था में रखना आवश्यक है । इन तत्वों में असंतुलन से विभिन्न शारीरिक बीमारियाँ और मानसिक गड़बड़ियाँ हो सकती हैं, जैसा कि आयुर्वेद में त्रिदोष सिद्धांत द्वारा समझाया गया है। उदाहरण के लिए, एक असंतुलित जल तत्व रक्त को प्रभावित कर सकता है, जिससे अस्थमा या प्रजनन संबंधी समस्याएँ हो सकती हैं। एक असंतुलित पृथ्वी तत्व थकान, वजन की समस्या और चिंता का कारण बन सकता है । इस संतुलन को बनाए रखना एक स्वस्थ और कार्यात्मक शरीर के लिए महत्वपूर्ण है, जो निरंतर आध्यात्मिक अभ्यास के लिए एक पूर्वापेक्षा है।
    योग एक व्यापक प्रणाली है जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत आत्मा और परम वास्तविकता के बीच मिलन (योग का अर्थ ‘मिलन’) प्राप्त करना है, जिसमें इंद्रियों, मन और महत्वपूर्ण ऊर्जाओं पर नियंत्रण शामिल है । योग अभ्यास सीधे तत्त्वों के संतुलन को संबोधित करते हैं:
  • आसन (मुद्राएँ): विशिष्ट आसन विशेष तत्वों को संतुलित करने के लिए अनुशंसित हैं। उदाहरण के लिए, पृथ्वी तत्व के लिए ताड़ासन और बालासन; जल तत्व के लिए मार्जरीआसन और बद्ध कोणासन ।
  • प्राणायाम (श्वास नियंत्रण): गहरी श्वास और विशिष्ट प्राणायाम जैसे अभ्यास वायु (वायु) तत्व को संतुलित करने में मदद करते हैं, जो शरीर के भीतर जीवन शक्ति (प्राण) और गति को नियंत्रित करता है ।
  • ध्यान और मौन: आकाश (ईथर/अंतरिक्ष) तत्व को संतुलित करने के लिए अनुशंसित, तनाव को कम करने और आंतरिक शांति पैदा करने में मदद करते हैं ।
  • आहार और जीवन शैली: आयुर्वेद और योग अग्नि (अग्नि) और पृथ्वी (पृथ्वी) तत्वों को बनाए रखने के लिए एक संतुलित और पौष्टिक आहार पर जोर देते हैं, और जल (जल) के लिए पर्याप्त जलयोजन पर ।
    योग में प्राण (जीवन शक्ति) और मनस (मन) का इंद्रियों के साथ एकीकरण भी शामिल है, जिससे एकाग्रता की स्थिति और अंततः आत्मा के साथ मिलन होता है ।
    योग आसनों, प्राणायाम, आहार और ध्यान के माध्यम से विशिष्ट तत्वों को संतुलित करने के विस्तृत निर्देश यह प्रदर्शित करते हैं कि ‘तत्वातोतदेह’ की समझ केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि गहरी व्यावहारिक है। यह बताता है कि शरीर केवल एक निष्क्रिय पात्र नहीं है, बल्कि एक सक्रिय स्थल है जहाँ आध्यात्मिक कार्य किया जा सकता है। शरीर एक “प्रयोगशाला” बन जाता है जहाँ तत्त्वों की बातचीत का अवलोकन, समझा और उच्च उद्देश्यों के लिए हेरफेर किया जा सकता है। यह व्यावहारिक अनुप्रयोग शरीर को पीड़ा के स्रोत से मुक्ति के साधन तक उठाता है। यह बताता है कि आध्यात्मिक प्रगति केवल एक बौद्धिक या भक्तिपूर्ण खोज नहीं है, बल्कि अस्तित्व के भौतिक और ऊर्जावान आयामों के साथ एक गहरा जुड़ाव भी है। यह परिप्रेक्ष्य व्यक्तियों को अपने आध्यात्मिक यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सशक्त बनाता है, अपने स्वयं के शरीर के भीतर मौलिक संरचना और ऊर्जा प्रवाह को सचेत रूप से प्रभावित करके।
    यह समझ कि शरीर ‘तत्वातोतदेह’ है, इसे एक मात्र भौतिक इकाई से एक गहन आध्यात्मिक उपकरण में बदल देती है। शरीर का निर्माण करने वाले तत्त्वों के साथ सचेत रूप से काम करके, साधक स्वयं को शुद्ध कर सकते हैं, अपनी इंद्रियों और मन पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं, और अंततः भौतिक अस्तित्व की सीमाओं को पार कर सकते हैं । योग का मार्ग, अपने आठ अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) के साथ, व्यवस्थित रूप से साधक को इन तत्त्वों के शुद्धिकरण और महारत के माध्यम से ‘कैवल्य’ (मुक्ति) की ओर ले जाता है । उपनिषद कहते हैं कि परम सत्य (‘परम तत्त्व’) का ज्ञान वाणी से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से स्वयं, और स्वयं से परम स्वयं तक प्रगति करके प्राप्त किया जा सकता है । यह सूक्ष्म शरीर के तत्त्वों के माध्यम से एक यात्रा को दर्शाता है।
    आयुर्वेद की ‘त्रिदोष’ अवधारणा जो शारीरिक लक्षणों (जैसे गठिया, त्वचा की समस्याएँ, मोटापा) को मौलिक असंतुलन से जोड़ती है और इन असंतुलनों को संबोधित करने वाली योग प्रथाएँ स्पष्ट रूप से दिखाती हैं कि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति (जैसे चिंता, क्रोध), और आध्यात्मिक प्रगति अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं। ‘देह’ का स्वास्थ्य ‘तत्त्व ज्ञान’ और ‘मोक्ष’ प्राप्त करने की क्षमता को सीधे प्रभावित करता है। यह समग्र दृष्टिकोण कल्याण के किसी भी खंडित दृष्टिकोण को चुनौती देता है। यह इस बात पर जोर देता है कि शारीरिक शरीर या मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक विकास में बाधा डालेगी। इसके विपरीत, ध्यान और प्राणायाम जैसी आध्यात्मिक प्रथाएँ, जबकि उच्च चेतना का लक्ष्य रखती हैं, अंतर्निहित तत्त्वों को संतुलित करके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी मूर्त सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। यह जीवन के लिए एक वास्तव में व्यापक दृष्टिकोण के लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रथाओं को एकीकृत करने के लिए एक मजबूत तर्क प्रदान करता है।
    VI. निष्कर्ष: तत्वातोतदेह के सार का संश्लेषण
    ‘तत्वातोतदेह’ की अवधारणा भारतीय दर्शन का एक आधारशिला है, जो इस बात पर जोर देती है कि मानव शरीर (‘देह’) केवल एक जैविक इकाई नहीं है, बल्कि मूलभूत सिद्धांतों (‘तत्त्वों’) से जटिल रूप से बुनी हुई एक जटिल अभिव्यक्ति है। इसकी भौतिक संरचना बनाने वाले स्थूल ‘पंचमहाभूतों’ से लेकर इसके मानसिक और संज्ञानात्मक कार्यों को नियंत्रित करने वाले सूक्ष्म ‘अंतःकरण’ तक, शरीर एक सूक्ष्म जगत है जो स्थूल ब्रह्मांडीय वास्तविकता को दर्शाता है।
    सांख्य, शैव, वेदांत और जैन धर्म जैसे विभिन्न दार्शनिक विद्यालय इन तत्त्वों को समझने के लिए विविध लेकिन पूरक ढाँचे प्रदान करते हैं, जिनमें 25 से 36 सिद्धांत शामिल हैं, प्रत्येक एक व्यापक ब्रह्मांड विज्ञान और मनोविज्ञान में योगदान देता है। शरीर की क्षणिक प्रकृति, जैसा कि इसकी व्युत्पत्ति से उजागर होता है, एक अस्थायी वाहन के रूप में इसकी भूमिका को रेखांकित करती है, जबकि ‘कर्म’ और ‘अविद्या’ अस्तित्व के चक्र से इसके बंधन को स्पष्ट करते हैं।
    ‘तत्वातोतदेह’ ढाँचा शरीर की विशुद्ध भौतिक समझ से परे है, इसे आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में ऊपर उठाता है। यह एक विरोधाभास प्रस्तुत करता है: शरीर बंधन का स्रोत दोनों है (अपनी तात्विक संरचना और संबंधित कर्म के कारण) और मुक्ति का आवश्यक साधन भी है।
    आयुर्वेद और योग जैसे व्यावहारिक अनुशासन शरीर के भीतर इन तत्त्वों को समझने और सामंजस्य स्थापित करने के लिए व्यवस्थित पद्धतियाँ प्रदान करते हैं। आहार, जीवन शैली, आसन और प्राणायाम के माध्यम से ‘पंचमहाभूतों’ और ‘त्रिदोषों’ को संतुलित करके, व्यक्ति शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्पष्टता प्राप्त कर सकते हैं, और आध्यात्मिक उत्थान के लिए एक इष्टतम वातावरण बना सकते हैं।
    यह समग्र परिप्रेक्ष्य अस्तित्व के सभी पहलुओं – शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक – की गहन अंतर्संबंधता पर जोर देता है, जो सभी मूलभूत ‘तत्त्वों’ में निहित हैं। आत्म-साक्षात्कार की यात्रा, इसलिए, शरीर से पलायन नहीं है, बल्कि इसकी मौलिक संरचना के साथ एक गहरा जुड़ाव है ताकि अंततः इसकी सीमाओं को पार किया जा सके और शुद्ध, शाश्वत स्वयं को प्राप्त किया जा सके

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