विकारों से मुक्त होकर सात्विक जीवन की ओर अग्रसरता

जिस वक्त हमारे अन्दर कोई भी विकार जन्म ले लेता है और हम।उस विकार को सोच उसमे लय हो उसमे रम जाते है जैसे काम क्रोध लोभ मोह अहंकार जलन इर्ष्या घमण्ड ओर लालच जब इनमे से कोई एक विकार पैदा हो जाता है वह दूसरे को भी अपने साथ ले इंसान को विकारो से युक्त बना देता है और इंसान इन विकारो में उलझ अपनी असली आध्यात्मिक जिंदगी को खो देता है और विकारो को बढ़ावा दे लालची बन जाता है और अहम में डूब अपने अस्तित्व को भूल।जाता है और इन विकारो को सोच जब ये विचार आता है कि मैं कुछ इस दुनिया मे बन गया हूं और मेरा भी समाज मे इन विकारो के कारण नाम है और मैं सेठ बन गया हूँ, मै काबिल हो गया हूँ, मै पैसे वाला हूँ, मै इज़्ज़तदार हूँ, मै खूबसूरत हूँ, बस यही से शुरू होती है हमारी बरबादी। यही सोच हमारे जीवन को बर्बाद कर देती है और यही से आध्यात्मिक पतन शुरू हो जाता है और भौतिकता के कदन हमारी आत्मा का स्तर गिर जाता है और हममे स्वार्थता की अकड़ पैदा हो।जाती है और नैतिक पतन होना शुरू हो जाता है और कर्म फल बिगड़ने से जो आध्यात्मिकता हममे आसानी चाहिए वह दूर हो जाती है और हम जीवन मुक्त नही हो पाते देती है- इसके लिए हमे खुद में सात्विकता को पैदा करना होगा और विकारो से मुक्त होना होगा और सांसारिक कर्म करते हुवे भी इसड मुक्त हो सात्विक गुरु की मेहर से जप तप ध्यान और समाधि की ओर बढ़ना होगा और अपने को चरित्रवान बना कर सात्विक जीवन जीते हुवे केवल्य पद पर पहुचना होगा नमन

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