अध्यात्म में सबसे जरूरी बात है वह विकार रहित होना जो आज के युग मे विकार रहित होना मुश्किल है मनुष्य कितने ही कर्म करले कोई न कोई विकार उसमे रहता है मेरी नजर में क्रोध लोभ मोह इर्ष्या आदि से इंसान मुक्त हो सकता है पर धन का मोह अवश्य म्रत्यु तक रहता है यही लालच मनुष्य को वीतरागी बनने से रोकता है और हम परिवार के संरक्षण हेतु लोभ वश कुछ गलत कार्य कर लेते है जो हमे अगले जन्म तक भुगतने होये है और उनका भुगतान गुरु अवश्य करवाता है ये विकार जैसे अहंकार। शिष्य के जीवन में विकार (जैसे क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह आदि) आध्यात्मिक उन्नति में बाधा बन सकते हैं। यदि इन विकारों को दूर नहीं किया गया, तो वैराग्य (सच्चा त्याग और संसार से अनासक्ति) प्राप्त करना कठिन हो जाता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
- विकार और आत्मा का शुद्धिकरण:
विकार: ये मन के दोष हैं, जो आत्मा को उसकी सच्ची प्रकृति (शुद्धता और आनंद) से दूर करते हैं।
शुद्धिकरण: विकारों को दूर करने के लिए साधना, ध्यान, स्वाध्याय और सत्संग का सहारा लेना पड़ता है।
जैसे- क्रोध को क्षमा से, लोभ को संतोष से, मोह को ज्ञान से और अहंकार को विनम्रता से हराया जा सकता है।
- गुरु कृपा और शिष्य का पात्र बनना:
गुरु कृपा सदा ही उपलब्ध रहती है, लेकिन उसका अनुभव तभी हो सकता है जब शिष्य उसे प्राप्त करने के लिए तैयार हो।
पात्रता: गुरु का ज्ञान और कृपा उसी शिष्य को मिलती है जो विनम्र, श्रद्धालु और प्रयासशील हो।
विकारों का प्रभाव: विकार गुरु की कृपा के प्रवाह को रोक सकते हैं, क्योंकि वे शिष्य को अहंकार और आत्ममुग्धता में उलझा देते हैं।
“जैसे गंदे बर्तन में अमृत भी डालो, तो वह अशुद्ध हो जाता है।”
- वैराग्य और अधूरा जीवन:
वैराग्य का अर्थ है संसार के प्रति अनासक्ति और आत्मा के प्रति समर्पण। यदि शिष्य में विकार रह जाते हैं:
वह संसार में ही उलझा रहता है और वैराग्य प्राप्त नहीं कर पाता।
जीवन अधूरा और असंतोषजनक रह सकता है, क्योंकि आत्मा की सच्ची प्रकृति का अनुभव नहीं होता।
- पुनर्जन्म और आत्मा की यात्रा:
यदि इस जन्म में आत्मा विकारों को नहीं मिटा पाती, तो उसे अपने अधूरे कर्मों और सीखने के लिए पुनर्जन्म लेना पड़ता है।
कर्म सिद्धांत: जो विकार और बंधन इस जन्म में नहीं हटते, वे अगले जन्म में भी साथ आते हैं।
आत्मा का लक्ष्य: आत्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है, जो केवल तब संभव है जब सभी विकार समाप्त हो जाएं और आत्मा शुद्ध हो जाए।
- विकार दूर करने के उपाय:
गुरु की शरण: गुरु का सान्निध्य और उनका मार्गदर्शन शिष्य को विकारों से मुक्त कर सकता है।
साधना और ध्यान: मन की चंचलता को नियंत्रित करने और आत्मा को शुद्ध करने के लिए।
स्वाध्याय: शास्त्रों और धर्मग्रंथों का अध्ययन।
सेवा: निःस्वार्थ सेवा से अहंकार और लोभ कम होते हैं।
वैराग्य का अभ्यास: सांसारिक इच्छाओं और मोह को धीरे-धीरे त्यागने का प्रयास।
निष्कर्ष:
गुरु कृपा सदा उपलब्ध होती है, लेकिन शिष्य को स्वयं को उसके योग्य बनाना होता है। विकारों को दूर करना और वैराग्य को प्राप्त करना आत्मा की मुक्ति के लिए आवश्यक है। यदि यह प्रक्रिया अधूरी रह जाती है, तो आत्मा को अपने कर्मों और विकारों के शुद्धिकरण के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है।
गुरु की कृपा और शिष्य का प्रयास मिलकर ही आत्मा को मोक्ष के पथ पर अग्रसर करते हैं।