विरह की डोली में सतलोक की यात्रा

“बिरहनि बिरहा ले गयकर्ता कार कहार”
अर्थ:
विरह (प्रेम-वियोग की पीड़ा) ने ‘बिरहा’ (वियोगी प्रेमी) को अपने साथ ले लिया — जैसे कोई कहार (पालकी ढोने वाला) दूल्हे को लेकर चला जाए। यहाँ बिरह एक भाव भी है और व्यक्ति का नाम भी बन जाता है — जो प्रेम में तड़पता है।

“चली सखी सतलोककूँ सतगुरु चरन जुहार”
अर्थ:
हे सखी! वह (प्रेमी) अब सतलोक (परम सत्य का लोक) को चला गया है, और सतगुरु के चरणों में प्रणाम करता है।

संक्षिप्त में भावार्थ:
जिस व्यक्ति ने सच्चे प्रेम (या भक्ति) में स्वयं को समर्पित कर दिया, उसे विरह की अग्नि ने जला डाला, और अब वह सतगुरु के चरणों में पहुँचकर परम लोक (सतलोक) में चला गया।”बिरहनि बिरहा ले गयकर्ता कार कहार,
चली सखी सतलोककूँ सतगुरु चरन जुहार।”


शब्दार्थ:

बिरहनि: विरह की पीड़ा (स्त्रीलिंग रूप में)

बिरहा: विरही प्रेमी या वह जो प्रेम-वियोग में जल रहा है

ले गयकर्ता: साथ ले गई

कार कहार: डोली या पालकी उठाने वाले

चली सखी: चली गई, हे सखी

सतलोककूँ: सतलोक की ओर (परम सत्य का लोक, ईश्वर का धाम)

सतगुरु चरन जुहार: सतगुरु के चरणों में प्रणाम


भावार्थ (अर्थ):

विरह की पीड़ा इतनी प्रबल है कि वह खुद ही डोली बनकर उस प्रेमी (बिरहा) को अपने साथ उठा ले गई — जैसे कोई दुल्हन की डोली को कहार उठा कर ले जाते हैं।

हे सखी! वह आत्मा (या विरही प्रेमी) अब इस माया-जगत को छोड़कर सतलोक (सत्य और शांति के परम धाम) की ओर चली गई है, और वहाँ सतगुरु के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम कर रही है।


गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ:

यह दोहा एक गहरा आध्यात्मिक संदेश देता है।

यह बताता है कि जब एक जीव सच्चे प्रेम (या भक्ति) में डूब जाता है, तो उसकी आत्मा इस संसार के बंधनों से मुक्त होकर परम सत्य (सतलोक) की ओर चल पड़ती है। इस मार्ग में ‘विरह’ (प्रभु से बिछड़ने की पीड़ा) ही उसकी सबसे बड़ी साधना बन जाती है, जो उसे अन्ततः सतगुरु की कृपा से मुक्ति और ईश्वर के चरणों तक पहुँचा देती है।

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