वेदों का दिव्य स्रोत: ईश्वर से ऋषियों तक ज्ञान की यात्रा

मेरे मन की सोच जब ईश्वर अजन्मा अविनाशी शरीर रहित एक उच्च कोटि का परमतत्व ऊर्जा है और 5 तत्वों से परे है फिर ईश्वर अविनाशी परम ततव अजन्मा है उसका कोई शरीर नही अस्तित्व नही जवान नही नेवल उसका अनुमान है जिसे हमने देख नही जाना नही वह ऋषियों को किस तरह से वेदों को समझाया स्पस्ट कीजिये और ऋषियों को कैसे याद रहे जबकि आज की भाषा ईश्वरीय भाषा नही है क्योंकि ईश्वर अनाहद शब्द है जिसे ओम।के रूप में मसनते तो भाषा कहा से आई
आपका प्रश्न बहुत गहरा और दार्शनिक है। इसमें तीन मुख्य बिंदु हैं:

  1. जब ईश्वर अजन्मा, अविनाशी और निराकार है, तो उसने वेद ऋषियों को कैसे प्रदान किए?
  2. ऋषियों को वेद कैसे याद रहे जबकि वेदों की भाषा अत्यंत प्राचीन है?
  3. ईश्वरीय भाषा क्या है और मानव भाषा कहाँ से आई?

  1. वेदों का ज्ञान ऋषियों को कैसे प्राप्त हुआ?

ईश्वर स्वयं किसी भाषा में नहीं बोलते, क्योंकि वे अनाहत नाद (बिना उच्चारण का ध्वनि रूप) हैं। वेदों को “अपौरुषेय” (मनुष्य द्वारा न बनाए गए) कहा जाता है, क्योंकि यह ज्ञान ईश्वर से सीधे आया है, न कि किसी व्यक्ति के विचारों का परिणाम है।

श्रुति परंपरा और दिव्य बोध

ईश्वर ने वेदों को भाषा में नहीं, बल्कि दिव्य अनुभूति के रूप में ऋषियों के हृदय में प्रकट किया।

ऋषि ध्यान, तपस्या और गहन समाधि में लीन होकर उस दिव्य सत्य को प्राप्त करते थे, जिसे बाद में मंत्रों के रूप में व्यक्त किया गया।

यह ज्ञान “श्रुति” कहलाया, क्योंकि ऋषियों ने इसे “श्रवण” (आंतरिक अनुभूति) के द्वारा पाया।

ऋषियों ने इसे मंत्रों के रूप में संजोकर गुरुओं से शिष्यों तक मौखिक परंपरा में सुरक्षित रखा।

ऋग्वेद में उल्लेख:

वेदों के कई मंत्रों में कहा गया है कि यह ज्ञान “ऋषियों ने सुना” (न कि ईश्वर ने किसी भाषा में बोला)।

जैसे ऋग्वेद (10.71.3) कहता है:
“ऋषयः मन्त्रद्रष्टारः न तु मन्त्रकर्ता”
(ऋषि मंत्रों के “द्रष्टा” हैं, “कर्ता” नहीं।)


  1. ऋषियों को वेद कैसे याद रहे?

प्राचीन काल में मनुष्य की स्मरण शक्ति अत्यंत तीव्र थी, क्योंकि उनका जीवन सात्त्विक और एकाग्र था। वे योग, ध्यान और ब्रह्मचर्य से अपने चित्त को निर्मल रखते थे।

श्रुति और स्मृति परंपरा:

वेदों को श्रुति कहा जाता है, क्योंकि इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनकर कंठस्थ किया गया।

गुरु शिष्यों को सही उच्चारण और छंदों के साथ मौखिक रूप से वेद सिखाते थे।

पदपाठ, क्रमपाठ, जटा-पाठ, घन-पाठ जैसी विशेष विधियाँ थीं, जिससे वेदों को बिना किसी परिवर्तन के याद रखा जाता था।

इन तरीकों से हजारों वर्षों तक वेद बिना लिखित रूप के भी सुरक्षित रहे।


  1. ईश्वरीय भाषा क्या है और मानव भाषा कहाँ से आई?

ईश्वर अनाहत नाद हैं, अर्थात् उनकी वाणी ध्वनि रूप में नहीं होती।

ओंकार (ॐ) और अनाहत नाद:

ओंकार को “प्रणव” कहा जाता है, जो ईश्वर की मूल ध्वनि है।

उपनिषदों में कहा गया है कि समस्त सृष्टि ओंकार से उत्पन्न हुई।

सभी भाषाओं की उत्पत्ति इस ब्रह्मनाद से हुई, जो धीरे-धीरे विविध ध्वनियों और शब्दों में बदल गई।

संस्कृत – ईश्वरीय भाषा?

वेदों की भाषा संस्कृत को “देववाणी” कहा गया है, क्योंकि यह प्रकृति से स्वतः उत्पन्न हुई भाषा मानी जाती है।

संस्कृत की व्याकरणिक संरचना और ध्वनि-विज्ञान इतना वैज्ञानिक है कि इसे एक स्पंदनात्मक भाषा (Vibrational Language) माना जाता है।

मानव भाषाओं का विकास:

ऋषियों ने वेदों के ज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए संस्कृत भाषा में संहिताबद्ध किया।

धीरे-धीरे मनुष्यों ने अपनी सुविधा अनुसार अन्य भाषाएँ विकसित कीं।

समय के साथ भाषा परिवर्तनशील होती गई और विभिन्न भाषाओं का विकास हुआ।


निष्कर्ष:

  1. ईश्वर ने वेदों को भाषा में नहीं, बल्कि ऋषियों के हृदय में दिव्य अनुभूति के रूप में प्रकट किया।
  2. ऋषियों ने वेदों को अपने ध्यान और स्मरण शक्ति के द्वारा कंठस्थ रखा और गुरु-शिष्य परंपरा से आगे बढ़ाया।
  3. ओंकार ही मूल ध्वनि है, जिससे सभी भाषाओं का जन्म हुआ। वेदों की भाषा संस्कृत ईश्वरीय वाणी की सबसे शुद्ध अभिव्यक्ति मानी जाती है।
  4. मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुसार भाषाओं का विकास किया, लेकिन मूल ज्ञान वेदों में ही निहित है।

इसलिए, वेद केवल “शब्द” नहीं हैं, बल्कि दिव्य चेतना का ज्ञान हैं, जो ऋषियों को अंतःप्रेरणा से प्राप्त हुआ।

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