गुरुदेव कहते है के शिष्य और शिशु में कोई अंतर नही जिस प्रकार शिशु को जन्म से कोई ज्ञान नहीं होता वह अपने माता पिता से ज्ञान प्राप्त कर छोटी से छोटी चीजें सीखता है । ना उसे चलने का ज्ञान होता है ना खाने का ना पीने का सब उसके लिए उसके माता पिता ही करते है और वह उनसे सीखता हुआ सब सीख जाता है ।
ऐसे ही शिष्य जब गुरु से मिलता है तो उससे पहले उसको कोई ज्ञान नहीं होता के वह इस पृथ्वी पर क्यों है उसका क्या कार्य है क्या उद्देश्य है उसी शिशु की तरह जिसे कोई समझ नही है के खाना कैसे है पीना कैसे है शिष्य को नही पता के परमात्मा को पाने का उसका रास्ता कौनसा है। वह किस रास्ते से परमात्मा को आसानी से पा सकता है । यह शिष्य को गुरु बताते है गुरु शिष्य को देखते ही पता लगा लेते है के इसको परमात्मा तक कैसे पहुंचाया जा सकता है और वही ज्ञान वह शिष्य को देते है एकदम शिशु के माता पिता की तरह शिष्य की आध्यात्मिक यात्रा करवाते है ।
गुरु हमे स्वयं अपने बच्चों से ज्यादा प्रदान करते है और ध्यान रखते है यहां सोचने की बात है के क्या हम शिष्य गुरु के लिए कुछ भी करते है । करना तो एक तरफ क्या हम उनको वह मान सम्मान जिसके वो हकदार है देते है । यह एक शिष्य को खुद अपने अंदर टटोलना होता है यह गुरु कभी नही कहते यहां शिष्य की समझदारी काम आती है । दुर्भाग्य है इस युग के गुरु का के उनको हम जैसे इतने समझदार शिष्य मिले के वह अपनी समझदारी से गुरु को भी लूट लेना चाहते है और उनको अपना काम निकलने के बाद मुड़ के भी नही देखते है ।