गुरुदेव कहते है के शिष्य का कर्तव्य है के वह गुरु के काम को ख़ुद पकड़े उनके हाथ पाँव बने यानी के उनके जो भी कार्य है वह अपने ऊपर बिना कहे लेके उनको करे और जो युक्ति हो सके उससे गुरु का तनाव कम करे । शिष्य गुरु को कुछ नहीं दे सकता वह सिर्फ़ और सिर्फ़ गुरु को प्यार दे सकता है और अपने आंसू उससे ज़्यादा ना तो गुरु को कुछ चाहिए ना वह कुछ चाहते है ।
गुरु तो समाज की सेवा में लगे होते है और उसके लिए वह कई कार्य करते है कहीं भंडारा लगाते है तो कहीं शिविर का आयोजन तो कहीं सत्संग सभी से उनका सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है – समाज सेवा कोई स्वार्थ नहीं होता । शिष्य को जो गुरु के समाज सेवा के कार्य है उनको अपना बना के योगदान देना चाहिए जहां शारीरिक बल की ज़रूरत हो तो शारीरिक बल , जहां मानसिक बल की ज़रूरत हो वहाँ मानसिक बल और जहां पैसों की ज़रूरत हो वहाँ जितना हो सके आश्रम में भेंट दे कर योगदान करना चाहिए । गुरु यह सब योगदान लेके समाज सेवा में लगा देते हैं ।
यहाँ गुरुदेव ने यह भी कहा है के यही एक सच्चे गुरु की पहचान भी है के वह शिष्य का योगदान पूरा पूरा समाज और शिष्य के हित में लगा दे अगर वह स्वयं उसका लाभ लेगा है तो वह गुरु नहीं हो सकता और घोर पाप का भोगी बनता है ।
गुरु आश्रम में जब भी कभी शिष्य योगदान देते हैं तब भी गुरु अपने प्रेम वश शिष्य को इतनी मेहर देते है जिसकी कोई तुलना नहीं हो सकती और गुरु यह देख लेते है के यह मेरे शिष्य लायक़ है जिनको मुझे और आगे ले जाना है बशर्ते वह योगदान बिना किसी लालच के हो ।
हम ऐसा ही योगदान जो भी हो सकें करें और गुरु चरणों में ख़ुद को मिटा सकें ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ ।
सादर नमन ।।