कोई व्यक्ति संत क्यों बनना चाहता है?
कोई भी व्यक्ति संत बनने की इच्छा तब करता है जब उसे सांसारिक सुखों और भौतिक वस्तुओं में स्थायी आनंद और शांति नहीं मिलती। कुछ प्रमुख कारण यह हो सकते हैं:
- आध्यात्मिक जागृति – जब व्यक्ति को यह एहसास होता है कि भौतिक वस्तुएं क्षणिक हैं और असली शांति आत्मा के भीतर है।
- दुख और मोह का अंत – जब संसार के दुख, मोह और भटकाव से व्यक्ति थक जाता है और एक शांतिपूर्ण जीवन चाहता है।
- सत्य की खोज – जीवन के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर पाने की जिज्ञासा, जैसे “मैं कौन हूँ?” “जीवन का उद्देश्य क्या है?”
- ईश्वर की भक्ति और सेवा – कुछ लोग भगवान की भक्ति में इतना लीन हो जाते हैं कि उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ लगने लगता है।
- संस्कार और पूर्व जन्मों के प्रभाव – कुछ लोग पिछले जन्मों के आध्यात्मिक संस्कारों के कारण भी संत मार्ग अपनाते हैं।
उच्च कोटि के वीतरागी संत के लक्षण
एक उच्च कोटि का वीतरागी संत वह होता है जो सांसारिक राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) से मुक्त होता है। उसके प्रमुख लक्षण ये होते हैं:
- राग-द्वेष से मुक्त – न किसी से लगाव, न किसी से द्वेष।
- समता भाव – सुख-दुख, लाभ-हानि, सम्मान-अपमान में समान भाव।
- निर्लिप्तता – संसार में रहते हुए भी उससे प्रभावित न होना।
- सत्य, अहिंसा, करुणा – सत्य बोलना, हिंसा से दूर रहना, सब पर दया रखना।
- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से परे – इन विकारों पर पूर्ण विजय।
- स्वावलंबन और त्याग – आवश्यकता से अधिक कुछ न रखना, दूसरों पर निर्भर न रहना।
- अहंकार-शून्यता – खुद को श्रेष्ठ मानने का भाव न होना।
- सहजता और सरलता – आडंबर और छल-कपट से मुक्त जीवन।
- ध्यान और आत्मसाक्षात्कार – सदैव आत्मा में लीन रहना और ध्यान-योग में रत रहना।
- जगत के प्रति ममता का अभाव – संसार को स्वप्नवत मानना और उसमें ममता न रखना।
आम आदमी कब संत बनता है?
आम आदमी संत तब बनता है जब:
- वह जीवन के भोगों से ऊब जाता है और उनमें शाश्वत सुख न देखकर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ता है।
- उसके भीतर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, यानी उसे संसार के सुख-दुख में अंतर नहीं दिखता।
- वह आत्मज्ञान प्राप्त करता है और समझता है कि असली आनंद बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि आत्मा में है।
- उसे एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन मिल जाता है, जो उसे ध्यान, साधना और ज्ञान की ओर ले जाता है।
- उसकी अंतरात्मा उसे प्रेरित करती है कि वह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए जिए।
कुछ लोग जन्म से ही संत प्रवृत्ति के होते हैं, जबकि कुछ जीवन के अनुभवों से सीखकर संत मार्ग अपनाते हैं। संत बनना केवल वस्त्र बदलना नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धि और आत्मा का उत्थान है।