पिताजी का जन्म 12 फरवरी 1916 में रोहतक में हुआ उच्च कुल के होने के कारण परवरिश भी उच्च घराने के माहौल में हुई बाल्य काल रोहतक में गुजरा वही से शिक्षा ली और 1938 में बीकानेर महाराजा गंगा सिंह जी के यहां बाग़ात व जंगल के रखवाली का मुख्य इंचार्ज बना दिया गया चुकी बचपन से ही हमारे घर मे राधास्वामी मत के गुरु महाराज आकर सत्संग करते थे और मेरी बुवा श्रीमती विद्या वती जी आचार्य पद पर आसीन थी ओर उनको देवी जी कहा जाता था वो उस समय रोहतक में कोर्ट में जुड़ी की सदस्य थी और उनपर ईश्वर की अनंत कृपा थी पिताजी का शुरू से ही अपनी माँ यानी मेरी दादी श्रीमती पार्वती देवी जो कि उच्च कोटि की हनुमान भक्त थी और गृहस्थ में रह कर भक्ति में ही लगी रहती थी इसी का उनके तीनो पुत्र व दोनो।पुत्रियों के जीवन पर भी ओर प्रभाव पड़ा मेरे ताऊजी श्री कल्याण चंद्र गुप्ता ने महज 23वर्ष की उम्र में ही महात्मा का दर्जा प्राप्त कर लिया था और 24 वर्ष की अवस्था मे ही समाधी लेलीदूसरे नंबर के ताऊजी जीवन के अंत समय तक आर्य समाज से जुड़े रहे और संत के रूप में इन्होंने 1971 में समाधि लेली पिताजी तीसरे नंबर पर थे उनपर भी धार्मिक प्रभाव बहुत जबरदस्त था और हनुमान भक्त होने के कारण वह हनुमान जी को गुरु रूप में मानते थे और मूर्ति नही साक्षात ईश्वर में कर पूजा करते थे उन्हें जीवन मे अनेक बार हनुमान जी दर्शन हुवे ओर उनको अपने होने का अनेक बार जीवन मे अहसास भी कराया वही मेरी।माँ श्रीमती दर्शना देवी भी बहुत उच्च कोटि के धार्मिक संस्कार ले कर पैदा हुई और ओर धार्मिक संस्कार ही उन्होंने अपने परिवार के सभी सदस्यों को दिए विकार रहित अपने बच्चों को संस्कार दिए और सत्य के आचरण पर आगे बढ़ने की शिक्षा दी 1958 में पिताजी के गुरु देव द्वरा उनको पूर्ण इजाजत मिल गई और उनकी आध्यात्मिक साधना का प्रभाव पूरे परिवार पर कुछ इस तरह से छाया की सदा परिवार ही अध्यात्मिक हो गया उनके जीवन मे जितने भी संत आये सभी का आशीर्वाद पिताजी ओर परिवार के सदस्यों को मिला और पिताजी के पास बहुत से व्यक्ति उनकी धार्मिक आस्था के पीती प्रभावित हो उनके अनुयायी बन गए पिताजी उच्च घराने में जन्म लेने के बाद भी कभी किसी को जाहिर नही होने दिया और साधु वाला ही जीवन जिया ओर विकार रहित रहे जिसमे जरोध लोभ मोह अहंकार घमण्ड इर्ष्या द्वेष जलन उनमे नही थी न ही किसी की बराबरी करते थे सादा जीवन और गृहस्थ धर्म को निभाते हुवे एक संत की उच्च श्रेणी उन्होंने अपने जीवन काल के 48 वर्ष की उम्र मेंपाली थी समाज की नजर में वह एक उच्च कोटि के ग्रहस्थ साधु थे उनमें समता थी और किसी तरह का किसी से भेद भाव नही थी वही मेरी माँ के पास जो भी सत्संगी या अन्य आता था उसके साथ घर के सदस्य यानी पुत्र मां कर व्यवहार करती थी और उसकी अध्या त्मिक सहायता भी गृहस्थ जीवन मे रह कर हर तरह का त्याग उन्होंने किया और अपना सारा जीवन निर्लिप्त निष्काम ओर एक सन्यासी की भांति जीवन जिया उच्च घराने का रहन सहन ओर संस्कार होने के बाद भी उन्होंने साधारण गृहस्थ का जीवन जिया ओर ईश्वर भक्ति की परिकस्थसा पर पहुच गई उनके दिए संस्कार से आज परिवार के सभी सदस्य यानी उनके पुत्र व पुत्रिया पौते पौती दोहते दोहती सभी मे आधात्मिक संस्कार उनके प्रभाव से कूट कूट के भरे है इसी के परिणाम स्वरूप 2016 में उनकी यानी माता पिता की स्मृति में एक छोटा आश्रम मातृ ओर पितृ स्मृति के नाम से भवन निर्माण हुआ जिसमें आज भी सत्संग व भंडारे का आयोजन होता है हम जानते है कि हमारे समाज मे जो संत पुरुष होते गए उनमे जन्म से ही कुछ ऐसे आध्यात्मिक संस्कार होते है जो उन्हें जन्म से वितरागी बना देते है और इसी जन्म में उनको संत बना कर परिवार और उनके पास आने वालों का कल्याण करते है मेरी नजर में एक संत पुरुष में निम्न गुण होते है महात्मा:गुण:उच्च नैतिकता और करुणा।सामाजिक न्याय और समानता की पैरवी।अहिंसा और सत्य के पालन में दृढ़।लोगों के बीच प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा देना।अवगुण:कभी-कभी इनका अनुयायी समुदाय इन्हें अतिसाधारण बना सकता है, जिससे वास्तविकता से दूरी हो सकती है।कुछ महात्मा स्वंय को इतना ऊँचा मानने लगते हैं कि दूसरों से संवाद में कठिनाई होती है।संत:गुण:अध्यात्मिक मार्गदर्शन देने में कुशल।आत्मज्ञान और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर।साधना और भक्ति के प्रति समर्पित।लोभ, मोह और अहंकार से परे।अवगुण:कुछ संत अपने अनुयायियों के बीच आडंबर फैलाने लगते हैं।समाज से दूरी और केवल साधना में लगे रहने से वास्तविक जीवन की समस्याओं से अज्ञानता हो सकती है।ऋषि:गुण:ज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म का गहन अध्ययन।वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों के ज्ञाता।समाज और मानवता की भलाई के लिए यज्ञ और तप करते हैं।समाज के नैतिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान।अवगुण:समाज से कटाव और कड़ी तपस्या से आम जीवन से अजनबीपन।कभी-कभी अहंकार में वृद्धि हो सकती है, क्योंकि उन्हें दिव्य ज्ञान का अधिकारी माना जाता है।साधु:गुण:सांसारिक मोह-माया से विमुख और त्याग का जीवन।भक्ति, तपस्या, और साधना में संलग्न।समाज के पथभ्रष्ट लोगों को सुधारने का प्रयास।साधना और आत्मशुद्धि में लीन।अवगुण:समाज से अत्यधिक दूरी और एकांत जीवन जीने से वास्तविक जीवन की चुनौतियों से बचाव।कभी-कभी कट्टरता और रूढ़िवादिता में फंस सकते हैं।अनुयायियों के बीच अहंकार का भाव आ सकता है।ये सभी व्यक्ति अपने-अपने तरीके से समाज के आध्यात्मिक और नैतिक विकास में योगदान देते हैं, लेकिन उनके जीवन के तरीके और दृष्टिकोण में अंतर होते हैं, जो उनके गुण और अवगुण को प्रभावित करते हैं।