- आत्मसमर्पण (ईश्वर प्राणिधान)
अपने अहंकार और इच्छाओं को छोड़कर पूरी तरह ईश्वर में समर्पित हो जाएं।
यह “मैं” को समाप्त कर “तू” को स्वीकार करने की प्रक्रिया है।
- वैराग्य का अभ्यास
सांसारिक वस्तुओं और इच्छाओं से मन को अलग करें।
यह मन को मुक्त और शांत बनाता है।
- सहजता और निरंतरता
समाधि का अनुभव एक बार में नहीं होता। यह निरंतर अभ्यास (अभ्यास) और वैराग्य के साथ संभव है।
धैर्य और दृढ़ संकल्प के साथ ध्यान जारी रखें।
- साक्षी भाव अपनाएं
अपने शरीर, मन और विचारों को एक “साक्षी” की तरह देखें।
इससे साधक “द्रष्टा” (वास्तविक आत्मा) के रूप में अपनी पहचान कर पाता है।