किसी भी मनुष्य को आध्यात्मिक कृपा किसी संत की 12 या 13 वर्ष की आयु में संत का आशीर्वाद व घर का माहौल या सानिध्य मिलता है जिससे संत उस व्यक्ति के सभी चक्र एक बार मे उर्जित कर उनको जाग्रत कर देता है और सभी कर्म करते हुवे उसमे आध्यात्मिक बिजोरोपन होने के कारण उसके संस्कार सन्यासी जैसे बन जाते है और जीवन के सभी कर्मो को भुगतान करते हुवे उसे दुनियादारी की वस्तुओं से लगाव नही रहता और मन मे एक ही प्रश्न रहता गया किस तरह से मैं जीवन मुक्त इंसान बनु ओर गुरु के आदेशों का यम नियम का पालन और गृहस्थ के सुख दुखको ईश्वर की कृपा मानकर भुगत खुद सम बनु ओर मेरे इस जीवन मे कोई ऐसा कलंक न लगे जो मेरे ईमान धर्म को डगमगा सके चरित्रवान सत्यवान ईश्वर में निष्ठा समाज की सेवा और बेईमानी से दूर रह भजन पूजन कर सात्विक जीवन जीते हुवे उस मुकाम तक।पहुच सकू जिस मुकाम पर मोक्ष होती है इसके लिए धर्म ग्रंथ पढ़ना और मित्रो से वेद के बारे में जानना ओर ईमान का पक्का होना होता है जब इंसान जान लेता है कि मैं आया भी अकेला हु ओर जाऊंगा भी अकेला ककी मेरे साथ जाने वाला नही न ही कोई मेरे मेरा साथ देने वाला जो भी मिले है वो अपने कर्म भुगत के चले जायेंगे ताड़ी मुझसे कुछ ही सके टी उनको भी इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सकू इस आध्यात्मिक राह में माता पिता बहिन भाई पत्नी और बच्चे और बहुत से बार पौते का रोल।भी अध्यात्म में बढ़ाने के लिए उच्च स्तर पर मिलता है पर ये सब लुर्व जन्म।के संस्कार पर निर्भर है इंसान का धसान सज़माधि ओर गुरु की दी ऊर्जा में इतना लिप्त ही जाता है कि उसका स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर मे उसे भेद नजर आता है और अपनी आत्मा रुओई सूक्ष्म शरीर को रग रग में गूंजता हुवा सुनता है अब उसे भूख प्यास नही सताती न कोइनिच्छ होतिन्हर हाल।में मस्त ओर कोशिश करता है कि वो आत्मा की आवाज में लय रहे और पूरे शरीर से आत्मा की आवाज अपने शरीर के रोम रोम में महसूस करे यही से उसकी असली आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है ऐसी स्तिथि में गुरु या शिष्य दोनो में से कोइ भी एक दूसरे में लय रहते है मोह माया के बंधन खत्म हो शिष्य गुरु के अस्तित्व में मिल।जाता है ओर अध्यात्म की दृष्टि के अनुसार एह योग की चरम अवस्था जिसे केवल्य और वीतरागी कहते है इनकी उच्च आध्यात्मिक अवस्थाओं को दर्शाते हैं, पहुच जाता है और अपनी धुन मेंखो सोचने लगता है एको ब्रह्म दूजो नाय ओर मूर्ति पूजा से विरक्त हो उस निराकार परमात्मा में खो जाता है जो सबमे व्याप्त है और कन कन में है पर ये सब संस्कार स्वमनकी लग्न गुरु कृपा ओर परिवार के सदस्यों के द्वारा साथ देने पर ही प्राप्त हो सकती है इसके लिए मैं परम भाग्य शैली हु जो मुझे ये सब इस जन्म में मील जिन्होंने तन मन धन और अध्यातमिक रूप से साथ दिया और मेरा मनोबल बढ़ाया तभी मैं आध्यात्मिक केंद्र का निर्माण कर पाया और सत्संग करने का सौभाग्य मिला और महान संतो की कृपा जो उललेख नही की जा सकतीस स्थिति में मैं या मेरा जिनमें व्यक्ति संसारिक बंधनों, इच्छाओं और द्वंद्वों से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। आइए इनके गुण और आध्यात्मिक स्थिति को विस्तार से समझें:केवल्य की
परिभाषा: केवल्य का अर्थ है “पूर्ण मुक्ति” या “अकेलापन,” लेकिन यह भौतिक एकांत नहीं, बल्कि आत्मा का पूर्ण स्वतंत्रता और स्वतंत्र अस्तित्व है।योग दर्शन के अनुसार, यह वह अवस्था है जहाँ पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (प्रकृति के गुण – सत्व, रज, तम) का पूर्ण विलगाव हो जाता है।केवल्य अवस्था में आत्मा अपने स्वभाविक स्वरूप, शुद्ध चेतना में स्थित हो जाती है, जो ज्ञान, आनंद और शांति का प्रतीक हैकेवल्य के गुण:
सर्वज्ञता (सर्व-ज्ञान): आत्मा में सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है। अकर्तापन: केवल्य की स्थिति में व्यक्ति कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह कर्ता (Doer) नहीं रह जातानित्य आनंद: बाह्य परिस्थितियों से निर्लिप्त, केवल्य अवस्था में अनंत शांति और आनंद का अनुभव होता है।द्वैत का लोप: “मैं” और “तू” का भेद समाप्त हो जाता है; आत्मा और परमात्मा का एकत्व अनुभव होता है। वीतरागी: वह है जो सभी प्रकार के राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और मोह (भ्रम) से मुक्त हो गया हो।वह न तो सुख में आनंदित होता है, न दुख में विचलित; उसकी दृष्टि सम रहती है भगवद गीता में इसेस्थितप्रज्ञ” की अवस्था कहा गया है।वीतरागी के गुण:समत्व भाव: सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश में समान दृष्टिअहंकार का अभाव: “मैं” और “मेरा” की भावना समाप्त हो जाती है।निर्लेपता: संसार में रहते हुए भी वह संसार से अछूता (कमल पत्र जलवत्) रहता है।दया और करुणा: सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि, प्रेम और करुणा का भाव अक्षुब्धता: किसी भी परिस्थिति में मन विचलित नहीं होता, पूर्ण शांति और संतोष बना रहता हआध्यात्मिक स्थिति:केवल्य और वीतरागी दोनों अवस्थाएँ साधना और आत्मानुभूति के चरम बिंदु को दर्शाती हैकेवल्य में व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जबकि वीतरागी संसार के समस्त बंधनों से मुक्त होकर जीवन-मुक्ति का अनुभव करता हैउपनिषदों और भगवद गीता के अनुसार, यह अवस्था मोक्ष या कैवल्य पद की ओर ले जाती है, जो पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति है।
निष्कर्ष:
केवल्य और वीतरागी की स्थिति को प्राप्त करना कठिन है, लेकिन यह प्रत्येक आत्मा का अंतिम लक्ष्य है। यह स्थिति योग, ध्यान, वैराग्य और ज्ञान के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है। इन अवस्थाओं में व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे पूर्णतः मुक्त होकर, शाश्वत आनंद और शांति का अनुभव करता है।किसी भी मनुष्य को आध्यात्मिक कृपा किसी संत की 12 या 13 वर्ष की आयु में संत का आशीर्वाद व घर का माहौल या सानिध्य मिलता है जिससे संत उस व्यक्ति के सभी चक्र एक बार मे उर्जित कर उनको जाग्रत कर देता है और सभी कर्म करते हुवे उसमे आध्यात्मिक बिजोरोपन होने के कारण उसके संस्कार सन्यासी जैसे बन जाते है और जीवन के सभी कर्मो को भुगतान करते हुवे उसे दुनियादारी की वस्तुओं से लगाव नही रहता और मन मे एक ही प्रश्न रहता गया किस तरह से मैं जीवन मुक्त इंसान बनु ओर गुरु के आदेशों का यम नियम का पालन और गृहस्थ के सुख दुखको ईश्वर की कृपा मानकर भुगत खुद सम बनु ओर मेरे इस जीवन मे कोई ऐसा कलंक न लगे जो मेरे ईमान धर्म को डगमगा सके चरित्रवान सत्यवान ईश्वर में निष्ठा समाज की सेवा और बेईमानी से दूर रह भजन पूजन कर सात्विक जीवन जीते हुवे उस मुकाम तक।पहुच सकू जिस मुकाम पर मोक्ष होती है इसके लिए धर्म ग्रंथ पढ़ना और मित्रो से वेद के बारे में जानना ओर ईमान का पक्का होना होता है जब इंसान जान लेता है कि मैं आया भी अकेला हु ओर जाऊंगा भी अकेला ककी मेरे साथ जाने वाला नही न ही कोई मेरे मेरा साथ देने वाला जो भी मिले है वो अपने कर्म भुगत के चले जायेंगे ताड़ी मुझसे कुछ ही सके टी उनको भी इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सकू इस आध्यात्मिक राह में माता पिता बहिन भाई पत्नी और बच्चे और बहुत से बार पौते का रोल।भी अध्यात्म में बढ़ाने के लिए उच्च स्तर पर मिलता है पर ये सब लुर्व जन्म।के संस्कार पर निर्भर है इंसान का धसान सज़माधि ओर गुरु की दी ऊर्जा में इतना लिप्त ही जाता है कि उसका स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर मे उसे भेद नजर आता है और अपनी आत्मा रुओई सूक्ष्म शरीर को रग रग में गूंजता हुवा सुनता है अब उसे भूख प्यास नही सताती न कोइनिच्छ होतिन्हर हाल।में मस्त ओर कोशिश करता है कि वो आत्मा की आवाज में लय रहे और पूरे शरीर से आत्मा की आवाज अपने शरीर के रोम रोम में महसूस करे यही से उसकी असली आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है ऐसी स्तिथि में गुरु या शिष्य दोनो में से कोइ भी एक दूसरे में लय रहते है मोह माया के बंधन खत्म हो शिष्य गुरु के अस्तित्व में मिल।जाता है ओर अध्यात्म की दृष्टि के अनुसार एह योग की चरम अवस्था जिसे केवल्य और वीतरागी कहते है इनकी उच्च आध्यात्मिक अवस्थाओं को दर्शाते हैं, पहुच जाता है और अपनी धुन मेंखो सोचने लगता है एको ब्रह्म दूजो नाय ओर मूर्ति पूजा से विरक्त हो उस निराकार परमात्मा में खो जाता है जो सबमे व्याप्त है और कन कन में है पर ये सब संस्कार स्वमनकी लग्न गुरु कृपा ओर परिवार के सदस्यों के द्वारा साथ देने पर ही प्राप्त हो सकती है इसके लिए मैं परम भाग्य शैली हु जो मुझे ये सब इस जन्म में मील जिन्होंने तन मन धन और अध्यातमिक रूप से साथ दिया और मेरा मनोबल बढ़ाया तभी मैं आध्यात्मिक केंद्र का निर्माण कर पाया और सत्संग करने का सौभाग्य मिला और महान संतो की कृपा जो उललेख नही की जा सकतीस स्थिति में मैं या मेरा जिनमें व्यक्ति संसारिक बंधनों, इच्छाओं और द्वंद्वों से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। आइए इनके गुण और आध्यात्मिक स्थिति को विस्तार से समझें:केवल्य की
परिभाषा: केवल्य का अर्थ है “पूर्ण मुक्ति” या “अकेलापन,” लेकिन यह भौतिक एकांत नहीं, बल्कि आत्मा का पूर्ण स्वतंत्रता और स्वतंत्र अस्तित्व है।योग दर्शन के अनुसार, यह वह अवस्था है जहाँ पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (प्रकृति के गुण – सत्व, रज, तम) का पूर्ण विलगाव हो जाता है।केवल्य अवस्था में आत्मा अपने स्वभाविक स्वरूप, शुद्ध चेतना में स्थित हो जाती है, जो ज्ञान, आनंद और शांति का प्रतीक हैकेवल्य के गुण:
सर्वज्ञता (सर्व-ज्ञान): आत्मा में सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है। अकर्तापन: केवल्य की स्थिति में व्यक्ति कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह कर्ता (Doer) नहीं रह जातानित्य आनंद: बाह्य परिस्थितियों से निर्लिप्त, केवल्य अवस्था में अनंत शांति और आनंद का अनुभव होता है।द्वैत का लोप: “मैं” और “तू” का भेद समाप्त हो जाता है; आत्मा और परमात्मा का एकत्व अनुभव होता है। वीतरागी: वह है जो सभी प्रकार के राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और मोह (भ्रम) से मुक्त हो गया हो।वह न तो सुख में आनंदित होता है, न दुख में विचलित; उसकी दृष्टि सम रहती है भगवद गीता में इसेस्थितप्रज्ञ” की अवस्था कहा गया है।वीतरागी के गुण:समत्व भाव: सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश में समान दृष्टिअहंकार का अभाव: “मैं” और “मेरा” की भावना समाप्त हो जाती है।निर्लेपता: संसार में रहते हुए भी वह संसार से अछूता (कमल पत्र जलवत्) रहता है।दया और करुणा: सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि, प्रेम और करुणा का भाव अक्षुब्धता: किसी भी परिस्थिति में मन विचलित नहीं होता, पूर्ण शांति और संतोष बना रहता हआध्यात्मिक स्थिति:केवल्य और वीतरागी दोनों अवस्थाएँ साधना और आत्मानुभूति के चरम बिंदु को दर्शाती हैकेवल्य में व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जबकि वीतरागी संसार के समस्त बंधनों से मुक्त होकर जीवन-मुक्ति का अनुभव करता हैउपनिषदों और भगवद गीता के अनुसार, यह अवस्था मोक्ष या कैवल्य पद की ओर ले जाती है, जो पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति है।
निष्कर्ष:
केवल्य और वीतरागी की स्थिति को प्राप्त करना कठिन है, लेकिन यह प्रत्येक आत्मा का अंतिम लक्ष्य है। यह स्थिति योग, ध्यान, वैराग्य और ज्ञान के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है। इन अवस्थाओं में व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे पूर्णतः मुक्त होकर, शाश्वत आनंद और शांति का अनुभव करता है।