एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक संत के जीवन में सम्पूर्ण वैराग्य और पूर्ण रूप से समाधि की अवस्था तब आती है जब वे आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) या ब्रह्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। इस अवस्था को “तुरीय” या “तुरीयातीत” कहा जाता है, जो चारों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) से परे होती है।

  1. वैराग्य की अवस्था:

विवेक और वैराग्य: सबसे पहले, संत में विवेक (सही और गलत, शाश्वत और अशाश्वत का भेद) उत्पन्न होता है, जिससे वैराग्य (मोह-ममता का त्याग) स्वाभाविक रूप से आता है।

वैराग्य की पूर्णता: जब संत को संसार की वस्तुओं, संबंधों, और भोगों में किसी प्रकार का आकर्षण या आसक्ति नहीं रहती, तब वे पूर्ण वैराग्य को प्राप्त करते हैं। इसे “परमवैराग्य” कहते हैं।

  1. समाधि की अवस्था:

सविकल्प समाधि: प्रारंभ में, ध्यान के अभ्यास से संत सविकल्प समाधि में जाते हैं, जहाँ अभी भी कुछ विचार या धारणाएँ शेष रहती हैं।

निर्विकल्प समाधि: जब मन पूरी तरह विचारशून्य हो जाता है और आत्मा में स्थिर हो जाता है, तब “निर्विकल्प समाधि” की अवस्था आती है, जो पूर्ण आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है।

जीवन-मुक्ति: इस अवस्था में संत वीतरागी बन जाते हैं, यानी राग-द्वेष से मुक्त होकर, आत्मा में स्थित रहते हैं। इसे “जीवन-मुक्त” अवस्था कहा जाता है।

  1. वीतरागता और ब्रह्मस्थिति:

वीतरागता: इस अवस्था में संत सब कुछ देखते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं, जैसे कमल का पत्ता पानी में रहकर भी गीला नहीं होता।

ब्रह्मस्थिति: यह वह अवस्था है जहाँ संत “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) के अनुभव में निरंतर स्थित रहते हैं। उन्हें जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य प्रतीत होता है।

कुल मिलाकर:

सम्पूर्ण वैराग्य तब आता है जब संत संसार की असारता को पूर्ण रूप से समझ लेते हैं और आत्मा के आनंद में लीन हो जाते हैं।

पूर्ण समाधि (निर्विकल्प समाधि) की अवस्था में वे शरीर में रहते हुए भी ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं, इसे “सहज समाधि” भी कहा जाता है।

वीतरागता और ब्रह्मस्थिति उनकी स्वाभाविक अवस्था बन जाती है, जहाँ न उन्हें सुख-दुख का स्पर्श होता है और न ही जीवन-मरण का भय।

यह अवस्था केवल गहन साधना, ध्यान, विवेक और गुरु कृपा से प्राप्त होती है।एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक संत के जीवन में सम्पूर्ण वैराग्य और पूर्ण रूप से समाधि की अवस्था तब आती है जब वे आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) या ब्रह्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। इस अवस्था को “तुरीय” या “तुरीयातीत” कहा जाता है, जो चारों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) से परे होती है।

1. वैराग्य की अवस्था:

विवेक और वैराग्य: सबसे पहले, संत में विवेक (सही और गलत, शाश्वत और अशाश्वत का भेद) उत्पन्न होता है, जिससे वैराग्य (मोह-ममता का त्याग) स्वाभाविक रूप से आता है।

वैराग्य की पूर्णता: जब संत को संसार की वस्तुओं, संबंधों, और भोगों में किसी प्रकार का आकर्षण या आसक्ति नहीं रहती, तब वे पूर्ण वैराग्य को प्राप्त करते हैं। इसे “परमवैराग्य” कहते हैं।


2. समाधि की अवस्था:

सविकल्प समाधि: प्रारंभ में, ध्यान के अभ्यास से संत सविकल्प समाधि में जाते हैं, जहाँ अभी भी कुछ विचार या धारणाएँ शेष रहती हैं।

निर्विकल्प समाधि: जब मन पूरी तरह विचारशून्य हो जाता है और आत्मा में स्थिर हो जाता है, तब “निर्विकल्प समाधि” की अवस्था आती है, जो पूर्ण आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है।

जीवन-मुक्ति: इस अवस्था में संत वीतरागी बन जाते हैं, यानी राग-द्वेष से मुक्त होकर, आत्मा में स्थित रहते हैं। इसे “जीवन-मुक्त” अवस्था कहा जाता है।


3. वीतरागता और ब्रह्मस्थिति:

वीतरागता: इस अवस्था में संत सब कुछ देखते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं, जैसे कमल का पत्ता पानी में रहकर भी गीला नहीं होता।

ब्रह्मस्थिति: यह वह अवस्था है जहाँ संत “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) के अनुभव में निरंतर स्थित रहते हैं। उन्हें जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य प्रतीत होता है।


कुल मिलाकर:

सम्पूर्ण वैराग्य तब आता है जब संत संसार की असारता को पूर्ण रूप से समझ लेते हैं और आत्मा के आनंद में लीन हो जाते हैं।

पूर्ण समाधि (निर्विकल्प समाधि) की अवस्था में वे शरीर में रहते हुए भी ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं, इसे “सहज समाधि” भी कहा जाता है।

वीतरागता और ब्रह्मस्थिति उनकी स्वाभाविक अवस्था बन जाती है, जहाँ न उन्हें सुख-दुख का स्पर्श होता है और न ही जीवन-मरण का भय।


यह अवस्था केवल गहन साधना, ध्यान, विवेक और गुरु कृपा से प्राप्त होती है।

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