जब भी कोई व्यक्ति भौतिक दुनिया के ऐश आराम मोह, माया और संसार से अपने को समा लेता है उसके लिए आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि उसे भौतिकता में आनंद से जीने की आदत हो जाती है जिसके कारण वह विलासता में घिर जाता है और जीवन का नैतिक कर्तेव्य मोक्ष को भूल।जाता है इसके बाद, संन्यास जीवन को व्यापन करने की उसकी कोई इच्छा नही रहती उसके लिए सांसारिक सुख ही अब सुखी जीवन के लिए जरूरी होती है उसे आध्यात्मिकता से कोई वास्ता नही होता न ही कोई जरूरत इस संसार मे उसे होती उसे विलासता पूर्ण जीवन के जीने में जो आनंद मिलता है वह त्याग मय जीवन मे आनंद जन मिलने वाला नही तो उसकी सोच भौतिकता में रहती है हम।जानते हैपूर्ण संन्यासी की अवस्था में, व्यक्ति अपने आध्यात्मिक असली स्वरूप का अनुभव करने लगता है और उसके लिए संसार की कोई भी चीज़ महत्वपूर्ण नहीं रहती।
पूर्ण संन्यासी की अवस्था में, व्यक्ति:
- अपने अंतर्मन की आवाज सुनने लगता है
- परमात्मा के साथ एक का अनुभव करने लगता है
- माया और संसार की मोह से मुक्त हो जाता है
- निर्विकल्प और निष्काम कर्म करना लगता है
-आत्मानुभूति और अंतर्ज्ञान का अनुभव करने लगता है
इस अवस्था में, व्यक्ति को किसी भी प्रकार की सांसारिक चीज़ की ज़रूरत नहीं होती, और वो अपने असल स्वरूप में खिलता है.