अनाहत नाद और वेदों का दिव्य रहस्य: ऋषियों को कैसे मिला ईश्वरीय ज्ञान?

ऋषियों में पूजा धतं करते सहती कैसे आई जबकि ईश्वर का कोई भौतिक अस्तित्व नही वह शुसमध ऊर्जा रूप में अनाहद है जो धक धक करती हुई शरीर मे मह्सुश होती है यह गहन आध्यात्मिक और योगिक अनुभूतियों से जुड़ा है। आपने अनाहत नाद और श्रुति के संबंध में जो संदेह प्रकट किया है, उसे समझने के लिए हमें योग, ध्यान, और आध्यात्मिक चेतना के स्तरों पर विचार करना होगा।

  1. अनाहत नाद (ध्वनि बिना आघात के)

अनाहत नाद का अर्थ है “बिना किसी टकराव के उत्पन्न होने वाली ध्वनि”।

यह हृदय चक्र (अनाहत चक्र) से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसकी अनुभूति पूरे शरीर में कंपन के रूप में होती है।

गहरे ध्यान और योग साधना के दौरान साधकों को यह ध्वनि सुनाई देती है, जिसे “ब्रह्मनाद” भी कहा जाता है।

यह कोई बाहरी ध्वनि नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का कंपन है, जो सूक्ष्म चेतना में सुनाई देता है।


  1. ऋषियों को श्रुति कैसे मिली?

(i) समाधि के उच्च स्तर पर दिव्य ध्वनि का अनुभव

जब कोई योगी या ऋषि गहरे ध्यान और समाधि की अवस्था में प्रवेश करता है, तो वह इंद्रियों से परे की ध्वनि (ब्रह्मनाद) को सुन सकता है।

यह ध्वनि ओंकार या महानाद के रूप में प्रकट होती है।

योग और तपस्या के माध्यम से ऋषियों ने इस ध्वनि को समझने की शक्ति विकसित की।

(ii) वेदों की अनुभूति और दिव्य प्रेरणा

ऋषियों ने शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) में स्थित होकर ब्रह्मनाद के कंपन को समझा।

यह दिव्य ज्ञान केवल ध्वनि के रूप में नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सत्य के रूप में उनके चित्त में अंकित हुआ।

इस ज्ञान को ऋषियों ने शब्दों के रूप में अभिव्यक्त किया, जिसे वेदों के मंत्र कहा गया।

(iii) ऋषियों की मानसिक स्थिति और दिव्य श्रवण

ध्यान और समाधि के उच्चतम स्तर पर मन पूर्णतः शांत और शुद्ध हो जाता है।

तब ऋषियों ने कंपन रूप में प्राप्त ज्ञान को भाषा के रूप में अभिव्यक्त किया।

यह ज्ञान ऋषियों ने स्वयं नहीं बनाया, बल्कि इसे श्रवण (श्रुति) द्वारा प्राप्त किया और आगे बढ़ाया।

इसीलिए वेदों को अपौरुषेय (मनुष्य निर्मित नहीं) कहा जाता है।


  1. अनाहत नाद और वेदों की भाषा का संबंध

अनाहत नाद कोई भाषा नहीं है, बल्कि शुद्ध ध्वनि कंपन है।

जब यह कंपन चेतना में रूपांतरित होता है, तो उसे भाषा का स्वरूप दिया जाता है।

संस्कृत इस दिव्य ध्वनि को सबसे शुद्ध रूप में व्यक्त करने वाली भाषा मानी जाती है।


  1. क्या आज भी कोई ऋषि इस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है?

हाँ, यदि कोई व्यक्ति गहन योग, ध्यान और ब्रह्मचर्य का पालन करे, तो वह इस दिव्य नाद को सुन सकता है।

साधना के उच्च स्तर पर पहुँचने के बाद दिव्य ज्ञान की प्राप्ति संभव है।

आज भी अनेक योगी ध्यान में इन ध्वनियों को सुनते हैं और आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं।


निष्कर्ष:

  1. अनाहत नाद कोई भाषा नहीं, बल्कि ब्रह्म की कंपनात्मक ध्वनि है।
  2. ऋषियों ने ध्यान और समाधि में इस ध्वनि को अनुभव किया और उसे शब्दों में अभिव्यक्त किया।
  3. संस्कृत भाषा इस दिव्य नाद को प्रकट करने का सबसे शुद्ध माध्यम बनी।
  4. जो भी गहरे ध्यान और साधना में जाता है, वह आज भी इन ध्वनियों को सुन सकता है और दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

इसलिए, वेदों की उत्पत्ति मानव बुद्धि से नहीं, बल्कि ब्रह्मनाद की दिव्य अनुभूति से हुई, जिसे ऋषियों ने “श्रुति” के रूप में प्राप्त किया।

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