वीतराग का शाब्दिक अर्थ है “राग (मोह) से परे”। इसका मतलब है संसारिक इच्छाओं, सुख-दुख, सफलता-असफलता आदि में समभाव रखना।
इसका तात्पर्य वैराग्य (अलगाव) से नहीं है, बल्कि वस्तुओं और परिस्थितियों के प्रति निष्पक्षता और आंतरिक शांति बनाए रखना है।
समाधि में वीतरागी बनने के लिए आवश्यक साधनाएँ:
- वैराग्य और अभ्यास:
वैराग्य: इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त होने का अभ्यास।
अभ्यास: मन को एकाग्र करने और ध्यान में स्थिर रखने का निरंतर प्रयास।
- ध्यान (धारणा और ध्यान):
धारणा: मन को एक बिंदु पर केंद्रित करना, जैसे श्वास, मंत्र, या किसी देवी-देवता का रूप।
ध्यान: उस बिंदु पर स्थिरता बनाए रखना, जिससे विचारों का प्रवाह धीमा हो जाता है।
- स्वाध्याय (आत्म-निरीक्षण):
अपने विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं को बिना किसी पक्षपात के देखना और समझना।
इससे राग-द्वेष के कारणों को समझकर उनसे मुक्त हुआ जा सकता है।
- साक्षी भाव:
स्वयं को “द्रष्टा” (देखने वाला) मानकर, सभी अनुभवों को केवल देखना, उनसे जुड़ना नहीं।
इससे मन में समभाव और संतुलन बना रहता है।
- स्मृति और विवेक:
अस्थायी और शाश्वत में भेद करने की क्षमता विकसित करना।
संसार की नश्वरता को समझकर आत्मा की शाश्वतता में स्थित होना।