संतों की साधना

संतों की साधना उनके आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उनकी साधना गहन तपस्या, भक्ति, ज्ञान, और वैराग्य से युक्त होती है। यहाँ कुछ प्रमुख साधनाओं का वर्णन किया गया है, जिन्हें संत-महात्मा अपनाते हैं:


  1. ध्यान (मेडिटेशन):

निर्विचार ध्यान: विचारों को पूरी तरह से रोककर शुद्ध चैतन्य में लीन होना। यह निर्विकल्प समाधि की ओर ले जाता है।

साक्षी भाव: विचारों और भावनाओं को बिना जुड़ाव के देखना, जिससे अहंकार और द्वेष समाप्त हो जाता है।

एकाग्रता (धारणा): एक बिंदु पर मन को केंद्रित करना, जैसे श्वास पर, ज्योति पर, या ईश्वर के स्वरूप पर।


  1. जप और स्मरण:

मंत्र जप: किसी मंत्र या नाम का निरंतर जप, जैसे “ॐ,” “राम,” “कृष्ण,” या गुरु-मंत्र।

नाम-स्मरण: ईश्वर के नाम का स्मरण निरंतर करना, जिससे मन शुद्ध और एकाग्र होता है।

अखण्ड जप: बिना रुके, दिन-रात नाम-स्मरण में लीन रहना, जैसे तुलसीदास, मीरा, और रामकृष्ण परमहंस ने किया।


  1. वैराग्य और अनासक्ति:

वैराग्य (विरक्ति): संसारिक वस्तुओं, संबंधों, और सुखों में आसक्ति का त्याग।

त्याग और समर्पण: अपने सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पण करना और फल की चिंता त्यागना।

अहंकार का नाश: “मैं” और “मेरा” की भावना का पूर्णतः अंत करना।


  1. ज्ञान और विवेक साधना:

आत्मविचार: “मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न पर गहन चिंतन, जैसा अद्वैत वेदांत में रामण महर्षि और शंकराचार्य ने बताया।

वस्तु-विवेक: शाश्वत (नित्य) और अस्थायी (अनित्य) वस्तुओं में भेदभाव करना।

अहं-नाश: अहंकार का संपूर्ण त्याग और “साक्षी-भाव” में स्थिर रहना।


  1. भक्ति और प्रेम:

निःस्वार्थ भक्ति: भगवान से किसी फल या सुख की अपेक्षा किए बिना केवल प्रेम और समर्पण करना।

कीर्तन और भजन: भगवान के नाम का गान, जैसे मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु, और कबीरदास जी ने किया।

लीला-चिंतन: भगवान की लीलाओं का चिंतन और उनके स्वरूप का ध्यान।


  1. योग और तपस्या:

अष्टांग योग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि का अभ्यास, जैसा पतंजलि योगसूत्र में बताया गया है।

तपस्या: शरीर, मन, और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने के लिए कठिन साधनाएँ करना, जैसे उपवास, मौन व्रत, आदि।

प्राणायाम: नाड़ी शोधन, भस्त्रिका, और कपालभाति से मन और प्राणों को शुद्ध और नियंत्रित करना।


  1. सेवा और करुणा:

निःस्वार्थ सेवा: परोपकार और सेवा कार्य, जैसे अन्नदान, शिक्षा, और चिकित्सा में योगदान।

करुणा और प्रेम: सभी प्राणियों के प्रति करुणा और प्रेमभाव रखना, जैसा संत तिरुवल्लुवर और संत रविदास ने सिखाया।


  1. सत्संग और शास्त्र अध्ययन:

सत्संग: संतों, गुरु, या आत्मज्ञानी महापुरुषों की संगति में रहना।

शास्त्र-स्वाध्याय: भगवद्गीता, उपनिषद, रामायण, और संतों के ग्रंथों का अध्ययन और मनन।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन: गुरु के उपदेशों को सुनना, उनका मनन करना, और ध्यान में अनुभव करना।


  1. मौन साधना (मौन व्रत):

मौन व्रत: मौन रहकर मन की चंचलता को शांत करना और आत्मनिरीक्षण करना।

अंतर्मुखता: बाहरी संसार से ध्यान हटाकर भीतर की चेतना में लीन होना।


  1. गुरु भक्ति और कृपा:

सद्गुरु का मार्गदर्शन: एक आत्मज्ञानी सद्गुरु के मार्गदर्शन में साधना करना।

गुरु-चरणों में समर्पण: अपने अहंकार को गुरु के चरणों में अर्पित करके उनकी कृपा प्राप्त करना।

गुरु-मंत्र और उपदेश का पालन: गुरु द्वारा दिए गए मंत्र और उपदेशों का पूर्ण निष्ठा से पालन।


  1. सहज समाधि और आत्मानुभूति:

सहज समाधि: निरंतर अभ्यास और वैराग्य से सहज रूप से समाधि में लीन रहना।

अहंकार शून्यता: “कर्ता भाव” का अंत और केवल “साक्षी भाव” में स्थित होना।

जीवन्मुक्ति: इस शरीर में रहते हुए मोक्ष और ब्रह्मानंद का अनुभव करना।

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