जब शिष्य गहरे आध्यात्मिक अनुभवों से गुजरता है, तो उसकी दृष्टि बदल जाती है। प्रारंभ में, उसे संसार मिथ्या लगने लगता है, मोह टूटता है, और वैराग्य का जन्म होता है। यह अवस्था अक्सर संसार से विमुख कर सकती है, लेकिन यदि वह इस अवस्था से और आगे बढ़ता है, तो एक गहरी समभाव और समर्पण की भावना विकसित होती है।
जब कोई साधक इस अवस्था को पार कर लेता है, तो उसे न तो संसार बंधन लगता है और न ही त्याग करने की आवश्यकता महसूस होती है। वह एक सहज फकीरी की अवस्था में आ जाता है—जहाँ न कोई अभाव है, न कोई आग्रह। वह सब कुछ स्वीकार करता है लेकिन किसी भी चीज़ में लिप्त नहीं होता। यह अवस्था ‘जहाँ-जहाँ नजर दौड़ाए, वहीं परमात्मा’ वाली होती है।
सच्ची रूहानी फकीरी का अर्थ यही है कि व्यक्ति अंदर से पूर्ण हो जाता है, बाहर की दुनिया उसे प्रभावित नहीं कर पाती, और वह सभी स्थितियों में स्थिर रहता है। इसे ही संत महापुरुष “जीते जी मुक्त” होने की अवस्था कहते हैं।