।शिष्य कब गुरु बनने की काबिलियत रखता है पिताजी खये थे कि शिष्य को शुरू शुरू में ध्यान की प्रक्रिया सिखाई जाती है और उसका आचरण श्रेड्थ बनाया जाता है और जब वह समर्पित हो जाता है और गुरु के प्रति निष्ठा आ जाती है तब गुरु उसे अपनी तववजुह दे और श्रेष्ठ बना देता है और ज्ञान को बाटने की इजाजत दे देता है ऐसी अवस्था मे वह शिष्य नही बना सकता पर आध्यात्मिक शिक्षा का प्रचार कर सकता है इसे प्रथम अवस्था कहि है दूसरी अवस्था मे गुरु ज्ञान से पूर्ण कर उसके अनाहद शक्ति दे देता है जो आज्ञा चक्र तक अनुभव होती है और गुरु की कृपा से वो इस विद्या में पारंगत हो जाता है ऐसी अवस्था मे वो किसी अन्य को ध्यान करा सकता है और आध्यात्मिक शिक्षा का प्रचार व योग को सीख सकता है समाधि में खुद भी बैठ सकता है और दूसरों को भी लाभवन्तित कर सकता है तीसरी अवस्था मे गुरु उसे पूर्ण ज्ञान जो भी आध्यामिकता से ताल्लूक रखता है उसे पढा देता है और शास्त्रो का ज्ञान होने पर निर्बीज समाधि की शिक्षा दे उसे पूर्ण प्रकाशवान कर उसके अंदर अनाहद ओर शून्य की स्तिथि पैदा कर उसे महाशून्य यसनी निर्बीज समाधि में स्तिथ कर उसे गुरु पद दे देता है इसके लिए शिष्य में निम्न गुण होना जरूरी है ज्ञान की पूर्णता: जब शिष्य ने गुरु के द्वारा सिखाए गए ज्ञान को न केवल समझ लिया हो, बल्कि उसका साक्षात अनुभव कर लिया होओर उसे आध्यात्मिक बोध हो जाता है तब वह स्वयं अनुभव के आधार पर सत्य को जानने लग जाता है और इस प्रक्रिया से उसका जीवन स्वयं उदाहरण बन जाता है और योग्यता पा लेता है इसकेलिए उसम अहंकार का लोप: होना जरूरी है जब वह ‘मैं जानता हूँ’ के भाव से मुक्त होकर, सेवा भाव से ज्ञान बांटने योग्य हो जाता है तो उसे आचार्य बना दिया जाता है अब उसमें विकार मिट कर उसमें नैतिकता और संयम: आ जाता है जो गुरु बनने के लिए चरित्र, संयम और शांति की आवश्यकता होती है, जो शिष्य में स्वाभाविक रूप से विकसित हो।जाता है यहां पर गुरु शिष्य को गुरु पद कैसे देता है
दीक्षा या अभिषेक के द्वारा: परंपरागत रूप से गुरु अपने योग्य शिष्य को विशेष दीक्षा देकर गुरु पद के लिए योग्य घोषित कर ध्यान या आध्यात्मिक शिक्षा जो उसे मिली है उस ज्ञान से सबको अवगत कराता है और अन्य व्यक्ति के द्वारा किये गए प्रशनो का उत्तर देता है और उनका सम्मान करता है।
जब ऐसी परिस्तिथि आती है तो शिष्य इससे पीछे नही हटता ओर सभा मे उपस्तिथ सभी का अभिभादन करता है और विनम्रता से पेश आता है ओर गुरु पद मिलने के बाद वो गुरु की शरण मे ही रहता है और कभी कभी गुरु कीअनुपस्थिति में शिष्य स्वतः गुरु रूप में कार्य करने लगता है, और यही गुरु की अनुमति का प्रतीक होता है। जब गुरु उसे पूर्ण गुरु पड़ दे देता है तब गुरु बनने के बाद शिष्य अब शिष्य के गुरु के कर्तव्य:ज्ञान का संरक्षण और प्रसार: सच्चे ज्ञान को बिना विकृति के आगे बढ़ाना।
शिष्यों का मार्गदर्शन: नए शिष्यों को प्रेम, धैर्य और करुणा से सिखाना।
स्वयं पर अनुशासन: अहंकार से बचते हुए स्वयं को निरंतर आत्मचिंतन और साधना में लगाना।
समाज और सत्य के प्रति उत्तरदायित्व: समाज को दिशा देना और सत्य का प्रतिनिधित्व करना।