संतत्व की ओर: समर्पण, साधना और सत्य का मार्ग

संत जैसे गुणों को पाने और संत बनने तक का सफर बहुत लंबा है जरूर नजी की आप इसी नीवं में उस स्तर तक पहूचे इसके लिए अभ्यास विकरो पर नियंत्रण और अभ्यासी व समर्पन्त ओर चरित्रता होना जरूरी है अगर आप इन सबसे युक्त है यानी विकार रहित सन्यासी तो आप संत बनने की अवस्था तक पहुच सकते है अन्यथा नही शुरू शुरू में जब शिष्य काबिल।बन जाता है तो उसे ध्यान करने की इजाजत दी जाती है वह भी सत्संग में गुरु आने वालों को।कहता है कि इनको इजाजत दी गई शिष्य तो बहुत बन जाते है या गुरुको गुरु मैं लेते है पर शिष्य की कसौटी पर खरा उतरना बहुत बड़ी उपलब्धि है शिष्य माया जाल में उलझा रहता है सेवा ध्यान भी करता है और कली कोई तो अनाहद ब
नाद भी पा लेता है और वेद गीता रामायणया अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्यन भी कर लेता है कब तक गुरु कर समीप रह कर गूढ़ ज्ञान और उर्जा शिष्य को नही मिलती तब तक।पूर्ण होंना मुश्किल है इसके लिए तन मन और धन और स्वम् को गुरु के आगे समरपित कर निसकाम ओर निःस्वास्रथ हो अपने को गुरु के आगे समर्पित करना होता है जबकि शिष्य अपने गृहस्थ में उलझा धन एकत्रित करने और अपने भविष्य को सुधारने में लगा रहता है और निष्कामी नही बन पाता समर्पित ओर लगातार गुरु की सेवा में कार्यरत नही रहता ओर पूर्ण श्रद्धा भी नही रखता जो इस कसौटी पर खरा उतर गया उस पर गुरु मेहरबान हो उसे पूर्ण इजाजत दे देता है हमारे पूर्व संत जो गुरुकुल चलाते थे वो भी शिक्षित कर जो काबिल ओर योग्य होता था उसे मुखिया बना देते थेऔर इसके लिए शिष्य में आध्यात्मिक, नैतिक और मानसिक गुणों का समन्वय आवश्यक है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकरआत्म-साक्षात्कार और परम सत्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होता है। संतत्व की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित गुणों का शिष्य मेंविकसित होना या उसे करना जरूरी है आध्यात्मिक गुण और सिद्धताअनाहद नाद में सिद्धि:अनाहद नाद (नाद योग) वह आंतरिक ध्वनि है जो ध्यान की गहरी अवस्था में सुनाई देती है। इसके लिए गहन साधना, एकाग्रता और आत्म-जागरूकता आवश्यक है।साधक को कुंडलिनी जागरण, चक्रों का शुद्धिकरण और नाद-बिंदु उपासना में ध्यान में पारंगत होना चाहिए।यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब मन पूरी तरह शांत और बाहरी इंद्रियों से मुक्त हो जाता है।समाधि की चरम अवस्था पहुच जाता है समाधि ध्यान की वह अवस्था है जिसमें साधक का मन और चेतना परमात्मा में लीन हो जाती है। यह निर्विकल्प समाधि तक पहुंचने की प्रक्रिया है।इसके लिए योग, ध्यान (जैसे राजयोग, भक्तियोग या ज्ञानयोग) और आत्म-निरीक्षण में दक्षता जरूरी है।समाधि में साधक सांसारिक द्वंद्वों (सुख-दुख, लाभ-हानि) से मुक्त होकर एकरस चेतना में लीन रहता है।आचरण में शुद्धतासत्य: संत का आचरण सत्य पर आधारित होना चाहिए। सत्य बोलना, सत्य जीना और सत्य के प्रति समर्पण।अहिंसा।मन, वचन और कर्म से किसी को हानि न पहुंचाना।ब्रह्मचर्य: इंद्रियों पर संयम और कामनाओं पर नियंत्रण। यह केवल शारीरिक संयम तक सीमित नहीं, बल्कि मानसिक शुद्धता भी शामिल है।दया और करुणा: सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का भाव, बिना भेदभाव के।नम्रता और विनम्रता: अहंकार का त्याग और सभी के साथ समान व्यवहार। लालची या धन का लोभ न हो उसकी मनोस्थिति और सांसारिक वैराग्यवैराग्य मय हो और सांसारिक सुखों, भौतिक वस्तुओं और मोह-माया से पूर्ण विरक्ति। यह केवल त्याग नहीं, बल्कि मन की वह अवस्था है जहां सांसारिक चीजें आकर्षित नहीं करतीं उसमे ।विवेक: सत्य और असत्य, नश्वर और शाश्वत के बीच अंतर समझने की शक्ति होनी चाहिए और मन मे क्षमता।एकाग्रता और स्थिरता के साथ : मन को एकाग्र और स्थिर रखने की क्षमता, जो गहरे ध्यान और आत्म-चिंतन से आती है। उसमे स्वम् आत्म-नियंत्रण: होना जरूरी है और क्रोध, लोभ, मोह, माया और अन्य मानसिक विकारों पर पूर्ण नियंत्रण होना जरूरी है इसके अलावा।भक्ति और समर्पण गुरु के प्रति हो और परमात्मा या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और विश्वास हो साथ ही. साधना और जीवनशैलीनियमित साधना साधक।में होना जरूरी है रोजाना ध्यान, जप, योग और ।सात्विक जीवन: सात्विक भोजन, सात्विक विचार और सात्विक व्यवहार। इससे मन और शरीर शुद्ध रहते हैं।सेवा: निस्वार्थ भाव से समाज और प्राणियों की सेवा करना।शास्त्रों का अध्ययन: वेद, उपनिषद, गीता, रामायण जैसे ग्रंथों का अध्ययन और उनके सिद्धांतों को जीवन में उतारना। संतत्व के लक्षणसंत वह है जो स्वयं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर दूसरों को भी मार्ग दिखाए।वह सदा शांत, संतुलित और सभी के प्रति समदृष्टि रखता है।उसका जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा बनता है और वह बिना स्वार्थ के सत्य और धर्म का प्रचार करता है।संत की वाणी और आचरण में एकरूपता होती है; वह जैसा कहता है, वैसा ही करता है प्रमुख मार्गभक्ति मार्ग: ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम।ज्ञान मार्ग।आत्मा और परमात्मा के सत्य को समझने की साधना।कर्म मार्ग निस्वार्थ कर्म और समाज सेवा।योग मार्ग: ध्यान, प्राणायाम और कुंडलिनी जागरण के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार। मैंने देखा है कई बार कोई संत अपनी।पूर्ण कृपा कर अपनी ऊर्जा शिष्य में एक बार मे भर देते है जिससे उसके सभी चक्र खुल अनाहद उसमे एक बार मे उतपन्न हो उसके जीवन की शैली ही बदल जाती है और धीरे धीरे साधना में केसरी रात रह वह पूर्ण रूप से गुरु के प्रति समर्पित हो अपना जीवन गुरु को अर्पण कर निसवारथ जीवन जीता है जोंगहंन तपश्या के ओर साधना करने के बाद शिष्य में आती है

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