विकार, जिन्हें क्लेश भी कहा जाता है, मानवीय मन की वो अशुद्धियाँ हैं जो हमें दुख और अशांति देती हैं। योग दर्शन और विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं के अनुसार, ये विकार हमारी अज्ञानता, गलत धारणाओं और सांसारिक आसक्तियों के कारण उत्पन्न होते हैं।
​विकार कैसे उठते हैं?
​विकारों के उठने के पीछे कई कारण होते हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
​अविद्या (अज्ञानता): यह सभी विकारों का मूल कारण है। अविद्या का अर्थ है सत्य को न जानना या उसे गलत समझना। हम स्वयं को शरीर और मन तक सीमित मानते हैं, जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा या ब्रह्म है। इस अज्ञानता के कारण हम नाशवान चीजों में सुख ढूंढते हैं, जिससे दुख उत्पन्न होता है।
​अस्मिता (अहंकार): अविद्या के कारण ही अस्मिता उत्पन्न होती है, जिसका अर्थ है ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव। जब हम स्वयं को शरीर और मन से जोड़ लेते हैं, तो यह अहंकार हमारी पहचान बन जाता है। इससे हम दूसरों से खुद को अलग और श्रेष्ठ समझने लगते हैं, जिससे तुलना, ईर्ष्या और क्रोध जैसे विकार जन्म लेते हैं।
​राग (आसक्ति): जब हमें किसी वस्तु, व्यक्ति या अनुभव से सुख मिलता है, तो हम उससे आसक्त हो जाते हैं। यह आसक्ति ही राग है। हम उस सुख को बनाए रखने की इच्छा रखते हैं और जब वह प्राप्त नहीं होता या छिन जाता है, तो दुख होता है।
​द्वेष (घृणा): राग के विपरीत, जब हमें किसी वस्तु, व्यक्ति या अनुभव से दुख या असुविधा होती है, तो हम उससे द्वेष करने लगते हैं। यह द्वेष हमें क्रोध, घृणा और प्रतिशोध जैसी नकारात्मक भावनाओं से भर देता है।
​अभिनिवेश (मृत्यु का भय): यह सभी जीवित प्राणियों में पाया जाने वाला एक सहज भय है। हम अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहते हैं और मृत्यु को सबसे बड़ा अंत मानते हैं। यह भय हमें असुरक्षित महसूस कराता है और कई विकारों को जन्म देता है।
​संस्कार और वासनाएँ: हमारे पूर्व जन्मों और इस जन्म के कर्मों और अनुभवों से मन में संस्कार (अव्यक्त छापें) बनते हैं। ये संस्कार ही हमारी वासनाएँ (इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ) निर्धारित करते हैं, जो हमें विशेष प्रकार के विचारों और क्रियाओं की ओर धकेलते हैं और विकारों को बढ़ावा देते हैं।
​बाहरी परिस्थितियाँ: यद्यपि विकार आंतरिक होते हैं, बाहरी परिस्थितियाँ जैसे कि सामाजिक दबाव, बचपन के अनुभव और पर्यावरणीय कारक भी उनके प्रकट होने में भूमिका निभा सकते हैं।
​हम कैसे प्रकाशवान हो सकते हैं?
​प्रकाशवान होने का अर्थ है आत्मज्ञान प्राप्त करना, विकारों से मुक्त होना और परम शांति और आनंद की स्थिति में जीना। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसमें आंतरिक कार्य और साधना की आवश्यकता होती है। इसके कुछ प्रमुख मार्ग हैं:
​आत्म-अध्ययन (स्वाध्याय): स्वयं को समझना और अपने विचारों, भावनाओं और क्रियाओं का अवलोकन करना। यह हमें अपनी विकारों की जड़ों को पहचानने में मदद करता है।
​अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना: शास्त्रों, गुरुओं और आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करके सत्य और अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में जानना। यह अविद्या को दूर करने में सहायक होता है।
​ध्यान और एकाग्रता (धारणा और ध्यान): मन को शांत और एकाग्र करना। ध्यान हमें विचारों और भावनाओं से ऊपर उठने और आंतरिक शांति का अनुभव करने में मदद करता है। विपश्यना और अनापानसति जैसे ध्यान विधियाँ मन को शुद्ध करने में बहुत प्रभावी हैं।
​योग और प्राणायाम: योग आसन शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखने में मदद करते हैं। प्राणायाम (श्वास नियंत्रण) प्राण ऊर्जा को संतुलित करता है और मन को स्थिर करता है, जिससे विकारों पर नियंत्रण आसान होता है।
​सत्संग और संगत: समान विचारधारा वाले लोगों के साथ रहना और आध्यात्मिक चर्चाओं में भाग लेना। यह हमें प्रेरित रखता है और सही मार्ग पर चलने में मदद करता है।
​सेवा और निःस्वार्थ कर्म: दूसरों की सेवा करना और बिना किसी अपेक्षा के कर्म करना। यह अहंकार को कम करता है और प्रेम व करुणा की भावना को बढ़ाता है।
​अभ्यास और वैराग्य: पतंजलि योग सूत्र में अभ्यास (निरंतर प्रयास) और वैराग्य (अनासक्ति) को मन के निरोध के दो प्रमुख स्तंभ बताया गया है। विकारों को दूर करने के लिए लगातार प्रयास करना और संसारिक सुखों और दुखों के प्रति अनासक्त रहना आवश्यक है।
​गुरु का मार्गदर्शन: एक सच्चा गुरु हमें सही मार्ग दिखा सकता है और आध्यात्मिक यात्रा में हमारी मदद कर सकता है।
​संक्षेप में, विकार अज्ञानता और आसक्तियों से उत्पन्न होते हैं, और प्रकाशवान होने के लिए हमें आत्मज्ञान, ध्यान, सेवा और सतत आध्यात्मिक अभ्यास के माध्यम से इन विकारों को दूर करना होगा। यह एक भीतर की यात्रा है जो हमें वास्तविक सुख और स्वतंत्रता की ओर ले जाती है।

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