अध्यात्म में सब से पहले अध्यातमिक यात्रा बचपन मे माता पिता के दिये आध्यात्मिक संस्कार से शुरू होती है जिसमे आत्म विसवास भक्ति और आरएम की भावना सम्मलित होती है और कुछ ज्ञान ही जाने के बाद असल मे ये यात्रा आत्मा की यात्रा की शुरूआत होती है जिसमे प्रेम ज्ञान भक्ति ध्यान और समाधि का विशिष्ठ ज्ञान सम्मलित होता है जिसके अभ्यास ओर ज्ञान से हमको ईश्वर की ज्योति की प्रकाश रूप में स्वम् ने अनुभूति होती है जो आगे की योग की स्तिथि में किसी योग्य शिक्षक के माध्यम से या योग के तरीके से हमको हमारे शरीर के अंदर प्रकाश रूपी ऊर्जा और अनहद नाद की प्राप्ति होती है जो शब्द रूप में हमारे शरीर मे मूलाधार से या पाँव के अंघुथे से लेकर सर के मध्य स्तिथ सहस्त्र चक्र तक शब्द रूप में गूंजता हुवा 24 घंटे अनुभूत होता है समाधि की चरम अवस्था में ये ज्यादा तर अनुबगव होता है ये ध्यान समाधि की अवस्था को शुरू कर उसमें खो जाने पर आरंभ होती है। प्रकाश रूपी ऊर्जा और अनहद शब्द की उतपत्ति योग करने से प्राप्त होती है ये धारा गुरु रूपी प्रभु से आरंभ होकर गुरु रूपी ईश्वर की प्राप्त होने पर ही हो सकती है और म्रत्यु के पश्चात ये अनाहद आवाज शरीर के सहस्त्र चक्र से निकल कर ब्रह्मण्ड में पुनः वापस निकल कर गुरु रूपी प्रभु में समा जाती है ।पिताजी के द्वारा बताया तरीका एक आत्मा यानी गुरु रूपी ईश्वर की आत्मा का ध्यान स्वम् की आत्मा को एकाग्र कर करने गुरु के द्वारादी गई शक्तिपात की ऊर्जा से प्राप्त ऊर्जा का यह तरीका एकदम सहज और सरल है। जब हम अंतर में ध्यान एकाग्र करते हैं ओर अभ्यास के द्वारा अपने मन को स्थिर कर एकाग्र करने में सक्षम हो जाते है और हमारे आंतरिक संबंध गुरु रूपी ईश्वर के आंतरिक ध्यानमें उस ऊर्जा से संबंध बन जाता है तो हम देहाभास से ऊपर उठकर अपने अंतर में स्थित दिव्य मंडलों में पहुंच जाते