मैं जानता हूं सद्गुरु ईश्वर का ही रूप होता है पर मनुष्य शरीर मे चोला धारण करने के कारण हम उसे जान नही पाते और उसे मनुष्य रूप में मानते हुवे उससे जुड़े रहते है चुकी सद्गुरु ईश्वर का ही दूसरा रुप होता है वह सब जानता है और जो कोई भी उसके संपर्क में आता है वह उसी के रंग में रंग जाता है जो उस रूप को जानता नही है और उस रंग में रंगता नही है सद्गुरु उसके कर्म तो कटवाते है पर उसे उसके प्रारब्ध का भुगतान भी करवाते है कई बार शिष्य प्रारब्ध भुगतते हुवे मानसिक रूप से परेशान हो अपने गुरु में विस्वास खो देता है पर गुरु उसे उस अवस्था मे भी उसका साथ दे कल्याण करना चाहता है पर शिष्य में अविष्वास की भावना प्रबल होने के कारण वो अन्य कीसी गुरु के संपर्क में आ जाता है और जो उसने पाया होता है उसे खो देता है ओर ताड़ी म्रत्यु हो जाये तोवो फिर से जन्म ले कर पुनः मानव योनि में आकर पूर्व जन्म के गुरु की शरण मे रह कर अपनी निजी यात्रा को पूर्ण करताहै जब तक शिष्य पूर्ण नही होता तब तक गुरु कीसी न किसी रूप में पृथ्वी पर जन्म ले कल्याण करते है और शिष्य के कर्म स्वम् भुगत कर शिष्य को।मुक्त करवाते है हम जानते है कि गुरु तो देता है देता है वह शिष्य से कुछ भी नही लेता पर शिष्य ये सोचता है कि मैं ही गुरु का गुजारा करता हु ओर मैं ही गुरु देव को देता हुओर गुरु का अस्तित्व मेरे कारण से ही है इससे शिष्य में अभिमान आ जाता है और बहुत सी बार वह गुरु की नजरों में गिर जाता है पर गुरु उसका दामन पकड़े रहते है हम जानते गुरु सिर्फ अपने गुरु की ऊर्जा को ग्रहण करता है जो उसे सुख या दुख कुछ भी होता है सब अपने गुरु का प्रसाद मान कर ग्रहण करता है पर गुरु हर हाल में अपने गुरु के मार्ग दर्शन में चलता है और निस्वार्थ भाव व निष्काम भाव लिए ईश्वर से अपने लिए ओर अपने शिष्य के लिए दुआ मांगता है और इस जन्म में शिष्य को कई गुना दे कर उसे लौटा देता है ये नियम शिष्य नही जानता ओर अंधेरे में रहता है पर जब गुरु अपनी गद्दी शिष्य को देता है और शिष्य गुरु पद पर आसन हो कर जब अपने अधिनिस्थ दूसरे सहयोगी पर अपनी कृपा निस्वार्थ निष्काम भाव से करता है तब उसे ज्ञान होता है कि मेरे गुरु में कितने महान थे जो हमारा भला ही भला करते रहते थे और हमारी भक्ति को कई गुना बढ़ा कर हमारे कर्म।काट देते थे और कर्म का भुगतान भी चंद सैकिंड में करवा कर स्वम् हमारे कर्मो का फल भुगतते थे