राम सन्देश – फरवरी, 1973.
जिज्ञासा
एक प्रेमी भाई के ह्रदय में यह बात घिर आई है कि अब तो श्री गुरुदेव परमसन्त महात्मा श्री कृष्ण लाल जी अपने पंचभौतिक शरीर में नहीं रहे. क्या मैं पुनः दीक्षा वर्तमान आचार्य से ले लूँ ? मुझसे पूछने लगे कि आप क्या आदेश देते हैं ?
अरे भाई, मैं तो स्वयं दलदल में फँसा हूँ. मैं तुम्हें क्या कहने लायक हूँ. अच्छा तो यही होता कि तुम वर्तमान आचार्य से ही पूछ लेते. फिर भी इतनी बात तो स्पष्ट है कि गुरु के प्रति जो विश्वास और भरोसा ह्रदय में होना चाहिए वह दृढ़ नहीं है. फिर उनमें और वर्तमान आचार्य में अन्तर ही क्या है ? आज श्री गुरुदेव शरीर में नहीं रहे तो क्या उनके शरीर को तुमने गुरु बनाया था ? क्या उनकी आत्मा तुम्हारे साथ नहीं है ? गुरु-कृपा तो हर समय सब पर हो रही है. जब जीव जगत की इच्छाओं में फंसता है तो उसे वह कृपा महसूस नहीं होती. इसलिए अपने मन को देखो. वह क्या पहले की तरह ही श्री गुरुदेव से प्रेम करता है ? अगर हाँ, तो यह प्रश्न ही नहीं आ सकता. हम कितना उनसे प्रेम करते हैं, उनके आदेशों पर कितना चलते हैं, इस बात का स्वयं पता लगाओ, क्योंकि अपने अन्तस को तुमसे बढ़कर देखने वाला कोई दूसरा नहीं. अपने विश्वास को दृढ़ रखो वरना शंकित ह्रदय से सब कुछ दूर हो जायेगा.
फिर जिसके हाथ तुम एक बार बिक चुके हो, दीक्षा ले चुके हो, और यदि दुबारा दीक्षा लेना चाहते हो तो वर्तमान गुरु उन्हीं के हाथ में तो तुम्हारा हाथ देंगे. क्या वर्तमान गुरु को तुम उनसे भिन्न समझते हो ? वह तो सब तरह से उन्हीं के रूप हैं, ऐसा सोचो.
उस प्रेमी भाई ने इस पर अपनी जिज्ञासा पुनः व्यक्त की कि सुना है बाप तो बेटे को भाई की अपेक्षा ज़्यादा प्यार देता है. इसलिए यदि मैं वर्तमान गुरु से दीक्षा ले लूँ तो मैं उनका पुत्र बन जाऊँगा. ऐसे तो मैं अभी उनका भाई हूँ, हालाँकि मैं पिता की तरह ही उन्हें आदर देता हूँ.
भाई, रिश्ता तो तुम जो चाहे मान लो. तुम अभी ही उन्हें रूपेण पिता क्यों नहीं समझते ? अगर यही बात है तो तुम उन्हें ही पिता समझो. क्या पुत्र की तरह तुम्हें वे प्यार नहीं देते – ” मोहे तोहे नाते अनेक, मानिये जो भावे “. रिश्तों के चक्कर में पड़ गए. यह बुद्धि की चालाकी एवं युक्ति है. वह हर रूप में, हर रिश्ते में सबको समभाव से प्रेम देता है. यदि ऐसा न होता तो वह सबको समभाव से प्यार करने वाला कैसे कहलाता ? फिर तुम्हारे श्री गुरुदेव के रिश्ते से ही तो वर्तमान गुरु तुम्हें प्यार करते हैं. क्या उनके रिश्ते को तोड़कर अपना कोई अलग रिश्ता तुम्हारे साथ वे जोड़ देंगे.
फिर यह भी सोचो आज श्री गुरुदेव शरीर में नहीं रहे तो तुम वर्तमान गुरु से दीक्षा लेकर उनका पुत्र बनना चाहते हो. कल को वे भी यदि शरीर में न रहें, क्योंकि शरीर तो जिसने धारण किया है छोड़ना सबको है, तो क्या पुनः गुरुदेव से दीक्षा लेने की बात आ सकती है ? इसलिए भाई इस शंका को सदा के लिए दूर कर दो.
श्री गुरुदेव ने दीक्षा सम्बन्धी एक बार प्रवचन दिया था. दीक्षा का अर्थ है – ‘अपने को बेच देना ‘और जो दीक्षा देता है वह अपने गुरुदेव और बुज़ुर्गों के हाथ में उसका (दीक्षा लेने वाले का) हाथ देता है. जो संस्कारी जीव हैं वे इसका अनुभव करते हैं कि उनका हाथ श्री गुरुदेव के हाथ में तो है ही, किन्तु बीच में जैसे कोई दूसरा हाथ भी कृपावश आ गया है और उन पावन हाथों में अपना हाथ आ गया है. तो दीक्षा लेने का मतलब यह हुआ कि केवल श्री गुरुदेव ने ही तुम्हें क़बूल नहीं किया है, बल्कि सिलसिले के सभी बुज़ुर्गों ने उनके माध्यम से तुम्हें अपना बना लिया, क़बूल कर लिया. यदि इसे न समझो और इसे केवल खेल समझते रहो तब तो दीक्षा हज़ार बार भी ली जाय तो एक खेल बना रहेगा. तुम्हारा सौभाग्य है कि उन हाथों में तुम्हारा हाथ पड़ गया. उन पर भरोसा रखो और वर्तमान आचार्य को ही उनका रूप समझो. तुम उनके पुत्र बन जाओ. पाओगे कि तुम्हारा अपना बाप भी वह प्रेम नहीं दे सकता जो प्रेम वे देंगे. वही सच्चे बाप हैं. अपने गुरु महाराज और उनको एक समझो. इस द्विविधा को हटा दो कि तुम उनसे दीक्षा लोगे तभी वे तुमसे ज़्यादा प्रेम करेंगे. यह तो तुम अपने प्रेम का भी अपनी बुद्धि से बटवारा कर देते हो. और अब अन्त में केवल एक उदाहरण दे दूँ. तुम तो भाई बहुत दिनों से सत्संग में हो. क्या श्री फूफा जी, आदरणीय श्री सेवती प्रसाद साहब को नहीं देखते ? क्या गुरु महाराज उनको थोड़ा भी कम प्यार करते थे, क्योंकि वे उनके गुरु-भाई थे ? भाई मुझे जो बात समझ में आयी कह चुका. लेकिन अच्छा यही होगा कि तुम वर्तमान आचार्य से स्वयं अपनी बात कह लो और जैसा वे कहें वैसा करो. तुमने बहुत अच्छा किया जो यह प्रश्न सामने आया, क्योंकि तुम्हारे माध्यम से ही बहुत से भाइयों की यह शंका यदि उनके दिल में होगी तो साफ़ हो जाएगी.
श्री गुरुदेव तुम पर कृपा करें.
(राम सन्देश में प्रकाशित इस लेख के लेखक का नाम नहीं दिया गया है )