राम सन्देश : मई-जून, 2001

  • राम सन्देश : मई-जून, 2001. 

निर्मलता, निवृति एवं ज्ञान प्राप्ति – अपनी दिनचर्या को ही साधना का रूप बनाएँ 

                                          (ब्रह्मलीन परमसन्त डॉ. करतारसिंह जी महाराज )

     सब प्रकार की साधना सही है, कोई ग़लत नहीं है. यदि जीवन का कोई लक्ष्य है तो वह लक्ष्य क्या है ? स्वामी विवेकानन्द ने एक लेख लिखा है जिसका सार है कि साधना करते-करते तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है. पहला चरण बताया है  Purgation का अर्थात अवगुणों की सफ़ाई का. हम लोग सब संसार में फँसे हुए हैं. कोई शरीर के साथ बंधा है तो कोई मन के साथ बंधा है, तो कोई अहंकार के साथ बंधा है. सब लोग परतंत्र हैं, किसी को भी अपने रूप की पहचान नहीं है – वह क्या है यह वह नहीं जानता. ऐसा नहीं कि वो साधारण व्यक्ति की बात कर रहे हैं. विवेकानन्द जी बात कर रहे हैं उन साधकों की जो इस रास्ते पर चल रहे हैं, और गंभीरता से चल रहे हैं. उनका कहना है कि जैसे घर का कमरा साफ़ किया  जाता है – झाड़ू-पोंछा किया जाता है उसी तरह भीतर में भी सफ़ाई करनी  है. 

    यदि हम गंभीरता से स्व-निरीक्षण करके देखें तो अपने विचारों से, अपने व्यवहार से पता चल जाता है कि हमारी आन्तरिक स्थिति क्या है ? क्षमा करेंगे, हम सब भीतर से मलीन हैं. चित्त पर अतीत के संस्कार अंकित हैं. परिणामस्वरूप हमारा जो व्यवहार है, हम जो कुछ बोलते हैं या जो कुछ विचार करते हैं या किसी के साथ व्यवहार करते हैं उसके द्वारा ही हम अपने चित्त की निर्मलता को प्रकट करते हैं – यही प्रथम चरण है. 

    पूज्य गुरुदेव (ब्रह्मलीन महात्मा डॉ, श्रीकृष्ण लाल जी महाराज ) फ़रमाया करते थे कि साधना करने से पहले नाभि पर ध्यान रखकर श्वास को ऊपर खींचें और वहाँ श्वास को स्थिर करके ॐ तत्सत, ॐ तत्सत, ॐ तत्सत कहें – तीसरी बार जो चोट मारें वह हृदय पर मारें. ॐ तत्सत का मतलब है कि सिवाय परमपिता परमात्मा के, जो शान्ति का, प्रेम का और आनन्द का सागर है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं. यह चोट ह्रदय पर मारने का मतलब है कि हमारा चित्त निर्मल हो. बार-बार यही कहकर चोट मारें कि प्रभु के सिवाय और कुछ नहीं. बाक़ी भीतर में जो कुछ भी विचार उठ रहे हैं से मुक्ति पाने के लिए मुख्य साधन यही है कि परमपिता के साथ हमारी तदरूपता हो जाए. सिवाय परमात्मा के भीतर बाहर और कुछ नहीं है.

    ॐ तत्सत, ॐ तत्सत – यह दो चार बार कहने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा. परन्तु यह साधन की नीव है-foundation   है. इसको विवेकानन्द जी ने कहा  है  Purgation  यह अंग्रेजी का एक शब्द है जिसका अर्थ है – सफाई करके उस गन्दगी को बाहर फेंक देना. यही साधना का सबसे कठिन और मुख्य चरण है. गन्दगी को साफ़ करके बाहर निकल कर फेंक देना बड़ा कठिन है. हमारे विचार, हमारे व्यवहार, हमारी वाणी – सब मलीनता लिए हुए हैं. उनमें शुद्धि अर्थात शुद्ध ज्ञान नहीं है Purgation .(झाड़ू देने या सफाई करने ) में जितना भी समय लग जाय, घबराना नहीं चाहिए. 

    मैने कई बार लालाजी महाराज का भी हवाला दिया है. उनका इरशाद था कि स्वनिरीक्षण करके अपनी एक बुराई को ले लीजिये. उसको त्यागने के लिए साधना करते रहिये. पूज्य लालाजी महाराज  का कहना था कि लोगबाग़ ‘तप’ करते हैं. शुरू में ज्ञान मार्गी   का, निर्मलता की प्राप्ति के लिए तप किया जाता है. गर्मियों में वो लोग अपने आगे अग्नि जला लेंगे, अपने आपको बहुत कष्ट देंगे. यह झूँठ व ग़लत नहीं है, सही है. परन्तु गृहस्थ लोगों के लिए जो संसार में रहते हैं, ऐसा करना बहुत कठिन है. इतनी कठोर साधना वह लोग नहीं कर सकते. विचार के माध्यम से यह साधना सब कर सकते हैं. यह साधना का श्री गणेश है. ऊपरी  Purgation ( सफ़ाई या निर्मलता) करना कुछ ऐसा है कि मानो जब कमरा साफ़ हो जाता है तो कमरे में अगरबत्ती जलाते हैं, कमरे में शुद्धि का वातावरण आकर्षण पैदा करता है, फिर वहाँ कुछ देर बैठने को मन करता है. यह विषय तो बहुत लम्बा है परन्तु मैं संक्षिप्त में वर्णन करूँगा.

    उन्होंने  Purgation के बाद दूसरा चरण बताया है  Annihilation  यानी पूर्ण रूप से निर्मलता प्राप्त करके अपनी बुराइयों को बिलकुल समाप्त कर देना. इसके लिए भी वही साधन है जो मैने अभी निवेदन किया है. वह है पूज्य लालाजी महाराज का जो इरशाद है उसका पालन करना. गुरुदेव ने तो इतना तक कहा था कि एक डायरी या कॉपी बना लें.  मन का निरीक्षण करते रहें और जो बुराई आपको दिखे उस कॉपी में नोट कर लें. कुछ लोग पहले जो सबसे अधिक बड़ी बुराई होती है उसको त्यागने की कोशिश करते हैं. किन्तु गुरु महाराज का आदेश था कि जो मामूली सी बुराई है पहले उसको त्यागने का प्रयास करें. उस बुराई को त्यागने में कितना भी समय लग जाये, घबराएं नहीं. इस तरह अपने अवगुणों के पूरे त्याग को  Annihilation Process  में पूरा एक जन्म नहीं, कई जन्म लग जाते हैं, 

     विवेकानन्द जी तो संस्कारी जीव थे. उनके महान गुरु रामकृष्ण परमहंस जी की उन पर असीम कृपा थी. इसलिए उनको अपने अवगुणों को त्यागने में उतना समय नहीं लगा जितना समय हमको लग सकता है और जिसके लिए पूज्य गुरुदेव ने सचेत भी कर दिया है कि घबराना नहीं चाहिए, एक जन्म नहीं, चाहे जितने भी जन्म लग जायें, चित्त को निर्मल कीजिये. जब तक आपका चित्त निर्मल नहीं होगा, भले ही आपको प्रकाश दिखाई दे जाये, शब्द सुनाई दे जाये, ध्यान लग जाये, ऐसा नहीं समझ बैठना कि आपको परमात्मा मिल गए. 

     विवेकानन्द जी ने अपने लेख में तीसरा स्वरुप बताया है –  Enlightenment  का अर्थात ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना. नाम कुछ भी ले लीजिये संक्षिप्त में उद्देश्य तो परमात्मा जैसा बनने का प्रयास ही करना है – 

                                                      तू तू करता तू भया,     मुझमें    रही न हूँ !

                                                     आपा फिरका मिट गया जित देखूँ तत तू .!!

    भीतर बाहर परमात्मा ही होना चाहिए. मैं का जो भाव है, जिसके परिणामस्वरूप आप अपने को परमात्मा से पृथक समझते हैं, वो ख़त्म हो जाना चाहिए. यह बड़ा कठिन है. कहने मात्र से नहीं होगा. अपनी बुराइयों को पूर्ण रूप से निकालने के बाद ही यह प्रकाश, यह ज्ञान प्राप्त होगा. 

    महर्षि रमन कहते हैं कि ऐसे ‘अहं ब्रह्म अस्मि ‘ तीन अक्षर कह देने से कुछ नहीं बनता. साधना करते हुए अहं से अहंकार निकल जाना चाहिए. यह कहना अभी भी संकेत देता है कि अहं वहाँ मौज़ूद है. यह दोनों ही खत्म हो जाने चाहिए. तब क्या  बचेगा ? केवल ब्रह्म, परमात्मा, ज्ञान, सत्यता, आनन्द. तब आप ब्रह्म हो सकते हैं. उससे पहले अहं ब्रह्मस्मि कहने में कुछ संतोष पाना भ्रम मात्र है, साधना की सिद्धि नहीं है. साधना की सिद्धि तब है जब अहं और हूँ दोनों  annihilate (समाप्त) हो जाना चाहिए. 

                                               अंदर बाहर एकौ जानो,    एह    गुरु    ज्ञान बताई !

                                                कहु नानक बिन आपा छीने, मिटे न भ्रम की काई !!

    हमारा यह जो आपा या ख़ुदी है, मैं है, वास्तव में उसे ख़त्म करना है. यह नहीं कि दो चार क्षण सत्संग में बैठे नहीं कि आपके भीतर अहंकार रहा ही नहीं. जब व्यक्ति ऐसा व्यवहार करता है कि – 

                                            जो नर दुःख में दुःख नहीं मानै, सुख सनेह और भय नहीं जानै !

तब उसकी यह स्थिति आती है. केवल काव्य लिख देने मात्र की बात नहीं है. जिसने यह रचना लिखी है ज़रा उन नवें गुरु  तेगबहादुर जी के जीवन की ओर ध्यान दें.  

    औरंगज़ेब के पास काश्मीर के पंडित गए हैं. बातचीत की है कि – “आप हमें क्षमा करदो हमारा जीवन तो आत्मिक जीवन है. हम तो देश में, विश्व में, आत्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं.” काश्मीर की सभ्यता बड़ी मशहूर थी. वहाँ के पंडित वास्तव में ऊँचे ज्ञानी होते थे.परन्तु औरंगज़ेब ने कहा – ” मैं एक शब्द सुनने के लिए तैयार नहीं हूँ. या तो इस्लाम क़बूल करो या तुम सबका वध होगा.” तो पंडितों ने हाथ जोड़कर कहा – “जनाब गुरु तेगबहादुर साब का नाम तो आपने सुना होगा. आप उनसे बात करें.” इस पर भी धर्मान्ध औरंगज़ेब ने कहा – ” हाँ, ऐसा कोई बड़ा व्यक्ति अपना बलिदान दे दे तो मैं आपको छोड़ दूँगा.”   काश्मीरी पंडित गुरुदेव की सेवा में आये हैं. प्रार्थना की है, आँखों में गंगा बह रही है और बताया है कि इस तरह औरंगज़ेब से बातचीत हुई है तो गुरुदेव कहते हैं – ” आप क्यों इतने परेशान हो रहे हैं ? चिन्ता न करिये. मैं तैयार हूँ .”  

    औरंगज़ेब को कह दिया गया और भेंट का समय तय कर दिया गया. औरंगज़ेब सोचता है कि क्यों न पहले गुरुदेव को डरायें. इसके लिए औरंगज़ेब ने कहलाया कि गुरुदेव के परमशिष्य भाई मतीदास की पहले मौत होगी वर्ना मुस्लमान बन जाओ. उनकी मनाही करने पर उसने भाई मतीदास जी को कहा कि, “चलो, पहले तुम्हारी ही बलि होगी ”  और उसके शरीर के दो टुकड़े करवा दिए गया. ज़रा ख़्याल कीजिये शरीर के दो टुकड़े करना, सर से लेकर पाँव तक और भाई साहब तनिक भी विचलित नहीं हुए. वह बहुत महान ऊँचे अभ्यासी और अच्छे संत थे. दिल्ली के चाँदनी चौक में जो फ़व्वाराबना हुआ है यह उन्हीं भाई मतीदास जी की पवित्र स्मृति में बना है. आपने भाई परमानन्द का नाम सुना होगा जो आर्य समाज के बहुत ऊँचे नेता थे. उन्हीं के पुत्र भाई महावीर मध्य प्रदेश के गवर्नर थे. यह भाई का …. मतिदास जी के वक्त से ही उनके ख़ानदान में चला आ रहा है. 

    परन्तु गुरुदेव तेग बहादुर जी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब औरंगज़ेब को बड़ा गुस्सा आया. इतना क्रोध आया कि उसने इनको क़त्ल करने के लिए भी हुक्म दे दिया कि इनका भी सर काट दो. जल्लाद ने तलवार से एक क्षण में आपका सर काट दिया. ऐसे महापुरुष ने यह शब्द लिखे हैं – ” जो नर दुःख में दुःख नहीं माने ” इन शब्दों के पीछे उनकी जीवनी है – यह कोई साधारण कविता नहीं है. 

    हम प्रतिदिन देखते हैं कि हमारे जीवन में, दिनचर्या में, कितनी बार उतार-चढ़ाव आते हैं. हम कभी मुस्कराते हैं, हँसते हैं, मिठाई बाँटते हैं. कोई कष्ट आ जाता है तो रोते-चिल्लाते जाते हैं. यह तो साधक का जीवन नहीं है. साधक को तो अपना जीवन उतना ऊँचा बनाना ही पड़ेगा जितना गुरुदेव ने अपना जीवन देकर हमें प्रेरणा दी है. और ज़रा इस बलिदान की भूमिका को भी देखें. उनके सुपुत्र गोविन्द राय उस वक्त नौ वर्ष के थे. काश्मीरी पण्डितों की पुकार सुनकर गुरुदेव ने उनसे पूछा कि ”बरखुरदार हमें क्या करना चाहिए ?” वह झट से बोले – “पिताजी आपसे बड़ा कौन हो सकता है जो अपनी क़ुर्बानी दे सकता है.” एक नन्हा बालक अपने पिता को कहे कि जाओ अपना बलिदान दे दो. आप कहेंगे कि ये सब कहने मात्र की बातें हैं – नहीं, ये ऐतिहासिक सच्चाई की बातें हैं. यह हमारे देश की संस्कृति है – महान संस्कृति है. हमारे देश की इस धरती ने बहुत उच्च कोटि के ऐसे महापुरुष पैदा किये हैं. 

    क़सूर हमारा है कि हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, छोड़ते जा रहे हैं. भाषा, पोशाक, आदि से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. किसी ने बाल रखे तो किसी ने नहीं रखे. नवमें गुरु तक बाल रखने का कोई नियम नहीं था. गुरुनानक देव् जी की सिख परम्परा में  नवमे गुरु थे. नवमें गुरु तक कोई केश, कड़ा, कंघी, कच्छा, किरपान वाली ऐसी वेशभूषा में तब्दीली नहीं थी. सीख को पंजाबी में शिक्षा कहते हैं. सिख उसको कहते हैं जो बलिदान देने की गुरुदेव की शिक्षा को मानता है. बालक कहता है कि पिताजी आपसे बड़ा और कौन हो सकता है ? जाइये, बलिदान दे दीजिये. तो यह थी पिता की प्रेरणा जिससे अपना बलिदान दे दिया. सपुत्र ( जो बाद में अमर योद्धा, संत, दशम गुरु गोविन्द सिंह जी कहलाये ) की यही वह अवस्था या आयाम है जब कि आदमी समता में आता है. तब आदमी विवेकानंद जी के कहने के अनुसार   illumination(प्रकाश) पाता है. उस आत्मिक ज्ञान से शरीर को, प्राणों को, मन को बल मिलता है. वह दुःख-सुख आदि द्वन्दों से ऊपर उठ जाता है. 

                              हमारी साधना का रूप व्यावहारिक जीवन हो -अपने जीवन को ही साधना रूप बनाइये 

     हम और आप तो सिर्फ़ कहने भर को अभ्यास कर रहे हैं. हमारी वह स्थिति कहाँ है जो बालक गोविन्द सिंह की थी. साधना जो है वह व्यावहारिक है. हमारा व्यवहार यदि साधना रूप नहीं बना तो समझ लीजिये कि साधना में कुछ प्रगति नहीं हुई. छोटी-छोटी बातों में हमें क्रोध आ जाता है, अहंकार आ जाता है, द्वेष और ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है. मैं बार-बार आप लोगों से निवेदन  करता रहा हूँ कि अपने व्यवहार को, अपने जीवन को साधना रूप बनाइये. गुरुदेव (ब्रह्मलीन परमसंत डॉ. श्रीकृष्ण लालजी महाराज ) कहा करते थे कि स्व-निरीक्षण करते रहना चाहिए, रोज़ नहीं तो सप्ताह में, सप्ताह में नहीं कर सकते तो महीने में एक बार. महीने में भी नहीं कर सकते तो कम से कम वर्ष में एक बार – जीवन में कभी करो तो सही. 

    कई बार तो वास्तव में रोना आता है कि साधना करते-करते इतने वर्ष हो गए हैं और हमारी यह दुर्दशा है कि हमें अभी तक क्रोध आ जाता है, मन विचलित हो जाता है. भीतर में बुराइयों के विचार आ जाते हैं. मैं ग़लत नहीं कह रहा हूँ. यह वास्तविकता है. अपने जीवन के आधार पर ही आपसे करबद्ध प्रार्थना करता रहा हूँ कि अपने जीवन को साधना रूप बनाइये. 

    अतः मैं पुनः आपके चरणों में अनुरोध करता हूँ कि अपने जीवन को ही साधना रूप बनाइये. हम आँख बंद करके बैठते हैं. यह  तो श्रीगणेश है, ठीक है. करो. इससे बल मिलता है. परन्तु सारा दिन आपकी जो जीवन-क्रिया है, जो कुछ भी आप करते हैं, वह साधना का रूप होना चाहिए. कोई आपको बुरा कहे तो आपको बुरा न लगे.कहते हैं कि कोई आपके गाल पर थप्पड़ मारे तो क्रोधित नहीं होना चाहिए. फ़रीद जी कहते हैं कि उस व्यक्ति के घर जाकर हमें उसके पाँव दबाने हैं .भला, क्या मैं और आप ऐसा व्यवहार कर सकते हैं कि ” फ़रीदा बुरे दा भला कर.” हम रोज़ कहते हैं, रोज़ पढ़ते हैं मगर हमारी यह हालत होती नहीं. दीनता तो सीखनी ही पड़ेगी. 

                                              अनुकूल और प्रतिकूल स्थिति में सम-भाव 

    इस संसार में रहोगे तो प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी आयेंगी और अनुकूल परिस्थितियाँ भी आयेंगी. लोगबाग हमें उत्तेजना भी देंगे और परिस्थितियों से हमें भी तरह-तरह का दुःख-सुख लगेगा. फिर व्यक्ति को क्या करना है ? संतवाणी है – “कंचन माटी माने “अर्थात कंचन रूपी सुख को और मिटटी रुपी दुःख को एक जैसा मानें. ऐसा भाव है कि सबमें ईश्वर के दर्शन करें. सभी एक हैं, सब एक उसी के रूप हैं. यदि आप दीन साधक बन गए हैं तो खुद आप अपने को सबसे नीचे समझिये. अपने आपको सबसे नीचे देखिये. 

                                           बुरा जो देखन मैं चला बुरा न दीखा   कोय !

                                           जो दिल खोजा आपना  मुझसे बुरा न कोय !! 

   प्रत्येक जिज्ञासु का आंतरिक भाव होने चाहिए कि अपने आपको दोषी माने. 

                                       नै निंदिया नहीं उत्सुक जाके लोभ मोह अभिमाना !!

    संसार में कोई हमारी निन्दा भी करेगा, स्तुति भी करेगा, भला बुरा भी कहेंगे. संसार में रहकर लोभ भी उत्पन्न होता है और अपमान से हम दुखी हो जाते हैं.इन सब द्वंदों से हमें मुक्त रहना होगा. इन सभी द्वंदों का प्रभाव हम पर न पड़े. आप देखें प्रातः से लेकर सांयकाल तक प्रत्येक व्यक्ति द्वंदों में फँसा हुआ है. मेरी हालत तो यही है, आपकी शायद न हो. 

                                         हरेक साध से रहे नचोरा, रहे मान अपमाना

    ख़ुशी भी होगी, क्लेश भी रहेगा – इन दोनों से अछूते रहिये. न तो आपके भीतर में अहंकार आना चाहिए और न ही अपमान से आपको पीड़ित होना चाहिए. 

    सब इच्छाओं, सब आशाओं को त्याग दो. भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दूसरे अध्याय में यही समझाया है कि इच्छाओं और आशाओं को त्यागो क्योंकि इनसे मन को दुःख होता है और परेशानी होती है. व्यक्ति के भीतर में अहंकार उत्पन्न होता है, क्रोध  उत्पन्न होता है. इसके उत्पन्न होने से सब कुछ नाश हो जाता है. सब नाश होने का मतलब है कि अहंकारी दूसरे को भी दुःख पहुँचायेगा और उसके भीतर में साधना करते-करते जो कुछ प्रगति हुई होगी उस सबका भी नाश हो जाएगा. सब साधना को नष्ट करने वाला तथा संसार में सबको दुःख देने वाला क्रोध है और क्रोध अहंकार के कारण पैदा होता है. तो हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम इस अहंकार से बचें और दीनता को अपनायें – यानी अति दीन, दीनतिदीन, अति दीनतिदीन बनें. 

                                       आसा मनसा सगल तियागो, जगते रहे निरासा

    संसार में रहोगे किन्तु संसार से अछूते रहोगे. यह भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है. अर्जुन चाहता है कि मैं चला जाऊँ, सन्यासी बन जाऊँ. भगवान कहते हैं – ” नहीं, रहना तुम्हें यहीं पड़ेगा. तुम्हारा धर्म यह है कि तुम युद्ध करोगे. मगर तुम लड़ते हुए भी अछूते रहोगे. इसका प्रभाव तुम्हारे चित्त पर नहीं पड़ेगा. ” यह बड़ा कठिन है. हम गीता या महाभारत में पढ़ते हैं कि वह (अर्जुन) अनेकों बार अपने लक्ष्य से गिरा परन्तु उसके पास ‘गुरुकृपा’ थी. भगवान कृष्ण जैसे महान गुरु की कृपा थी जो प्रतिक्षण, प्रतिपल, प्रत्येक परीक्षा में उसकी सहायता करती थी. 

                                      काम क्रोध जय हरसे नाहिन ते घट ब्रह्म निवासा 

    जिसके भीतर में काम, क्रोध आदि की कामनायेँ, इच्छाएँ उत्पन्न नहीं होतीं और जब वह उत्पन्न होती हैं और उनकी पूर्ति नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता है – दोनों को छोड़िये. यह बड़ा कठिन है जिसमें हम सब फंसे हुए हैं. हर हाल में ऐसे भक्त की गति स्थिर है वही ब्रह्म देश का निवासी है. उसको हम कह सकते हैं कि वह एक आदर्श पुरुष है. आप सबको इस लक्ष्य को अपने सम्मुख रखना है. 

                                      गुरु किरपा जे नर की कीन्हीं यह ते गति पहचानी !

                                      नानक लीन्ह भयो गोविन्द सों, ज्यों पानी संग पानी !!

    भगवान कृष्ण जैसे गुरु मिल जायें तब उद्धार होता है. गीता, भागवत जैसे ग्रन्थ बताते हैं कि भगवान कृष्ण जैसे गुरु होते हुए भी अर्जुन की गति नहीं हुई. शिष्य जिस पर गुरु कृपा हो गयी वह इस युक्ति को समझ सकता है और अपने जीवन को सफल बना सकता है. सफलता किस प्रकार की – जैसी ” नानक लीन्ह भयो गोविन्द सों “. 

    यदि परमात्मा में अपनी लवनीनता इस तरह से हो जायेगी जैसे बारिश होती है तो बारिश की बूँदें पानी के साथ मिलती हैं और फिर अपना अस्तित्व ही खो देती हैं – सागर ही बन जाती हैं. तो कृपा करके मेरी इस तुच्छ प्रार्थना को स्वीकार करें और गंभीरता पूर्वक अपनी दिनचर्या को ही साधना का रूप बनाएँ. 

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