सदगुरु कहते है के शिष्य को गुरु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई हजारों साल तक तप या साधना करने की जरूरत नहीं है । इस युग में शिष्य हजारों साल तक जीवित रह के तप नहीं कर सकता तो वह क्या कर सकता है ।
जिस तरह एक करोड़पति एक गरीब लड़की से शादी कर ले और वह लड़की जब अपना जन्म से ले के अब तक का सब कुछ छोड़ कर शादी कर पति के घर जब आती है तब वह गरीब नही रहती उसी दिन से वह भी उस धन की मालकिन बन जाती है जो सब उसके पति का था अब वह सब उसका भी है इसीलिए तुलसीदास ने कहा के मैं तो राम की बहुरिया ।
ठीक इसी तरह जब शिष्य जो अब तक का था वह सब छोड़ गुरु को खुद को दे दे समर्पण कर दे तो फिर गुरु खुद शिष्य में बस जाते है और जब गुरु बस गए तो अपने आप उनका सारा ज्ञान चेतना शिष्य में आ जाती है ।
यहां खुद को दे देना कहा गया तो क्या दे दें यहां घर परिवार सब छोड़ के गुरु के घर पे बैठ जाने की बात नही है । एक मनुष्य के अपने पास देने के लिए अपना कुछ ऐसा नहीं जो जन्मों तक रह सके यह पैसा शरीर सब मिट्टी में मिल नष्ट हो जाता है तो अगर गुरु को देना है तो ऐसी चीज जो नष्ट ही न हो सके और वह सिर्फ एक ही चीज़ है वह है हमारी आत्मा । जब हम अपनी आत्मा गुरु चरणों में रख उसमें सिर्फ और सिर्फ गुरु को बसा लेंगे तो फिर जो गुरु का है वही हमारा ।
हम गुरु के और वह हमारे और ऐसा हो सके हम ऐसी ही प्रार्थना करते है ।