गुरुदेव बताते है के राधा और ललिता दोनो सहेलियां थी और दोनो पर ही कृष्ण बराबर अपने प्रेम की वर्षा करते थे । राधा ने अपना बुद्धि पक्ष समाप्त कर कृष्ण को समर्पण कर दिया था और उसे मन में यह पूर्ण विश्वास था के कृष्ण सिर्फ और सिर्फ उसे ही प्रेम करते है । कृष्ण दोनो पर बराबर अपने प्रेम की वर्षा करते थे लेकिन ललिता का मन पूर्ण समर्पित नही था उसकी बुद्धि पक्ष पूर्ण समाप्त नहीं था और ललिता के मन में यह था के शायद कृष्ण राधा को ज्यादा चाहते है वह राधा को ज्यादा प्रेम करते है और इस विचार की वजह से वह पूर्ण समर्पण नही कर पाई । नही कर पाई तो राधा उसी जन्म में ब्रह्म से साक्षात्कार कर सकी और ललिता को 25 और जन्म लेने पड़े और 25 जन्मों के बाद वह ललिता मीरा बनी और उसने अपना बुद्धि पक्ष पूर्ण समाप्त कर फिर कृष्ण में पूर्ण लीन हो पूर्ण हो गई ।
एक छोटा सा द्वंद एक छोटा सा विचार एक छोटा सा अविश्वास हमको कई जन्मों तक पीछे धकेल सकता है ।
गुरुदेव कहते है के गुरु स्वयं शिष्य पे माया का विस्तार करते है स्वयं उसको भ्रम में डालते है स्वयं उसमे अविश्वास पैदा करते है और इंतजार करते है के जो शिष्य यह सब कुछ माया भ्रम अविश्वास को तोड़ के गुरु में पूर्ण विश्वास करते हुए उनको अपने मन में बसा उनमें लीन हो जाता है फिर उसे पूर्ण होने से कोई नहीं रोक सकता गुरु उसे अपनी बाहों में ले पूर्ण कर देते है और वह स्वयं गुरुम्य बन जाता है ।
हमको बस यही करना है गुरु में ही खुद को लीन करना है और ऐसा हम कर सकें ऐसी ही प्रार्थना करते है ।
सादर नमन ।।