राम सन्देश : जनवरी ,1991. 

          राम सन्देश : जनवरी ,1991. 

                अहंकार त्यागें : दीनता ग्रहण करें    

                             (  ब्रह्मलीन परमसन्त डॉ. करतारसिंह जी साहब )

       अध्यात्मिकता में सरलता के गुण का विशेष महत्व है. सरलता उसी व्यक्ति में होती है जिसके हृदय मे राग द्वेष नहीं होता, जिसके मन में अहंकार चिपका नहीं होता. आध्यात्मिकता में बहुत कठिनाइयाँ आती हैं. ऊँचे संतों और फ़क़ीरों को भी बाधाएँ आ जाती हैं और उसका कारण होता है उनका सूक्ष्म अहंकार. भक्ति या साधना का सार क्या है ? “तू वो ही है जो मेँ हूँ.” परमात्मा सर्वव्यापक है, सर्वज्ञ है. सभी जगह वो ही है ,कण – कण में, रोम – रोम में. ” मन में राम, तन में राम, रोम – रोम में राम ही राम.” पर यह केवल कहने मात्र को न हो — ऐसा अनुभव हो. ये साधना की शिखरता है  परमात्मा ही जानता है कि इसके आगे भी क्या कुछ और है, क्योंकि आध्यात्मिकता का कोई अन्त नहीं है. यह विद्या कहाँ जाकर अन्तिम चरण में पहुँचती है, कुछ नहीं कहा जा सकता. 

         ईश्वर के गुणों को स्मरण करना, उनको सराहना, स्तुति करना, उपासना करना — ये गुरु या ईश्वर की पूजा   है. धीरे -धीरे दैवी गुण अपने में अंकित हो जावें. जो गुरु का रूप है वो ही साधक के गुण हो जावें. जो गुरु का रूप है वो ही साधक का रूप हो जावे, दोनों में कोई अन्तर न रहे – यहीं गुरु दर्शन है. किन्तु कहना नहीं चाहिये, ये भी सहज अवस्था नहीं है. यहाँ पर पहुँच कर भी कई लोग अपने पद से कुछ समय के लिए गिर जाते हैं. एक दफ़ा अनुभव हो जाता है, ज़्यादा तो नहीं होता. सहज अवस्था भी नहीं आ पाती है जब तक भीतर में से वासनाएँ, सँस्कार, इच्छाएँ, आसक्ति  हमेशा -हमेशा के लिए नहीं निकल जाती अर्थात भीतर और बाहर पूर्ण रूप से ईश्वर रूप नहीं बन जाता, तनिक भी उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं रह जाता. कबीर साहब जैसे महापुरुष तो ललकार कर कह सकते हैं कि ” मुझे अब कुछ करने की ज़रूरत नहीं है.” परन्तु बड़े – बड़े सन्त साधू पुरूष डरते ही रहते हैं. ऐसी अवस्था पर पहुँचकर भी वो या तो सेवक बन जाते हैं या कान्ता भाव को अपना लेते हैं. 

        कबीर साहब ने सेवक का भाव अपनाया. गुरु नानक देव ने सेविका का भाव अपनाया है — मिले हुए भी हैं और अलहदा भी हैं. ऐसा करने से अहंकार नहीं होता है और यदि कोई वासना रह भी जाती है तो वह धीरे -धीरे ख़त्म हो जाती है. नामदेव जी ने अपनी वाणी में में भिन्न -भिन्न प्रकार की साधना बताईं हैं परन्तु यह कभी नहीं कहा कि मैं  पूर्ण हो गया. नामदेव जी ने भक्ति, प्रेम और ज्ञान तीनों को अपनाया है. पहले प्रेम को अपनाया, फिर ज्ञान को और फिर भक्ति को अपनाया है. ज्ञान को स्थिर करने के लिए भक्ति की ज़रूरत पड़ती है. आदि शंकराचार्य जैसे परम ज्ञानी ने भी बाद में भक्ति को अपनाया है. सब महापुरुषों ने ऐसा ही किया है. भक्ति में दीनता है अतः गिरने का भय कम रहता है 

      आध्यात्म विद्या में आगे बढ़ने वालों को सेवक बने रहना चाहिये, दास बने रहना चाहिये. पूज्य गुरु महाराज जी कहा करते थे जिसने यह कहा कि मैं  गुरु बन गया, वो गया, और कहा करते थे कि ये बड़ा कठिन पद है. यह बात सही है. जब तक ईश्वर कृपा न हो ऐसा व्यक्ति संसार से अछूता नहीं निकल पायेगा. ये भी ईश्वर की कृपा ही होती है वरना माया तो क़दम – क़दम पर आक्रमण करती है, परीक्षा लेती है. भगवान शिव, भगवान राम, भगवान कृष्ण की भी परीक्षा हुई. ये माया किसी को भी नहीं छोड़ती है. साधकों को दीनता अपनानी चाहिय . सभी महापुरुष यही सिखाते हैं –  ” कहो नानक मोहे कोई गुण नाहिं, हे प्रभु राखो अपनी शरण में. “

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