आज अचानक ही ख्याल आया की दुनिया का सफर तो
परिवार के साथ होता है परिवर्तन जब आता है जब
आध्यत्मिक गुरु मिल कुछ आध्यात्मिक ज्ञान देता है और कहता है
कर्म तुम्हे ही करने होंगे उनका भुगतान भी तुम्हे पाना होगा हॉ
अपने कर्मो के साथ अपने परिवार के भी कर्म भुगतने होंगे
यहि सोच मैंने गुरु की शरण में जाना तय किया और
निकल पड़ा गुरुनकी तलाश मे
तलाश अभी पूरी हुई भी नही थी कि जीवित गुरु मिल गए ओर मैं
समर्पित हो गया ओर चरणों मे नत मस्तक हो
उनकी शरण को स्वीकार कर लग गया उनके बताई साधना में
ओर अपने प्रारब्ध का भुगतान करने ओर कर्म सुधारने
कुछ समय लगा ने लगा इस सुधारने की प्रक्रिया में
कुछ अध्ययन कुछ स्मरण ओर ध्यान करना शामिल था
ओर भगवान की पूजा में
मुझे एक अजीब सा आनंद आने लगा समय गुजरने लगा अब ध्यान समाधि में तब्दील
हों गया ओर मैं इस लुफ्त मे इतना खो गया ओर
हर रोज नियम से गुरु के दरबार में जाने लगा
तभी मुझे समझ मे आया की जब आया
अकेला हु तो अंतिम सफर भी मुझे अकेले ही चार
कंधो पर करना होगा शेष रहे कर्मो का भुगतान भी
स्थूल शरीर छोड़ सूक्ष्म शरीर को करना होगा
ये सोच कर मैं ओर विचलित हो गया
क्योकि अब तक तो कुछ अच्छे कर्म नही किये थे
अब क्या होगा कैसे होगा ये सोच के
गुरु के दरबार मे फिर से पहुच गया
ओर बोला क्या करूँ ओर कैसे करूँ की
जीवन मुक्तता मुझे मिल।जाये
तभी गुरु देव बोले वत्स कर्म कर फल
उस पर छोड़ ओर बची है जिंदगी को परमात्मा से अपने चित्त को जोड़
और भूल जा की तू जिंदा है
ओर उसकी शरणागति में लग जा इस तरह कर्म कट जाएंगे
ओर तू काबिल नेक पुरुष बन जायेग
इस संसार से मुक्त हो तो सतलोक पहुच जाएगा
मेरी सोच मेरे कर्म मेरे विचार