आध्यात्मिकता में जब शिष्य गुरु के अधीन *रह कर विकार मुक्त हो प्रेम ज्ञान भक्ति को समझ ध्यान और* समाधि की ** अवस्था को गुरु से सिख कर ध्यान से समाधि की अवस्था मे प्रेवेश करता है तो अपने को आनन्दित महसूस करता है और *इस जीवन के लक्ष्य यानी मोक्ष पाने की समझ* उसमे आने लगती है
हम जानते है समाधि की अवस्था मे श्वास पर नियंत्रण हो जाने पर ओर मन के स्थिर अवस्था मे संतुलित होने पर समाधिस्थ होता है समाधि की चरम अवस्था से पूर्व जो प्रकाश या नाद की आवाज उसे ध्यान अवस्था मे बाहरी जगत में रहते सुनाई या दिखाई देती है ये समाधि की चरम अवस्था मे घटित नही होती । सिर्फ शून्यता महसूस होती है
जब साधक ध्यान की परिकस्था से ऊपर गुरु की मेहर या आर्शीवाद या शिक्षा से समाधि की अवस्था मे।पहुचता है ओर लयता आती है तो वह अपने को भूल जाता है और उसे अपने अस्तित्व का आभास भी नही होता कि वह कहा बैठा है और क्या कर रहा है समाधि की चरम अवस्था मे साधक का संबंध बाहरी दुनिया से खत्म होजाता है और गुरु रूपी उस ईश्वर यानी परमात्मा से जुड़ जाता है और अंतरमुखी बन के उसे परमात्मा का भान हो जाता है
हम ये जानते है कि सद्गुरु द्वारा सिखाये गए ध्यान योग की चरम अवस्था समाधि है और समाधि की समयातीत अवस्था ही मोक्ष मॉनी गई है
इस समाधि अवस्था मे साधक का मन बाहरी वस्तुओ से सीमिट कर भौतिक दुनिया से मन हट कर अपने इस्ट में ध्यान या एकाग्र हो जाता है और इस अवस्था में उसे प्रकाश या शब्द किसी का भान अपने आप मे नही होता है उसका इस अवस्था मे शरीर शून्य हो कर शून्यता को ग्रहण कर लेता गया और एक ऐसी स्तिथि में समाधिस्थ हो जाता है जिसे हम एक तरह से मरतुय भी कह सकते है इस अवस्था मे उसे अपने शरीर के अस्तित्व का बोध नही होता उसे एक असीम आनंद में बहता है और आनंद की अनुभूति है जो आध्यात्मिक परम आनंद होता है ऐसी स्तिथि में वो भौतिक जगत में लौटना नही चाहता ओर आनंद में ही लय रहना चाहता है चुकी जीवन शेष है अतः कुछ अंतराल के बाद पुनः भौतिक दुनिया मे लौटना होता है ओर इस प्रक्रिया को नियमित रूप से साधना करनी होती है
ये साधना गुरु द्वारा समझाई जाती है की किस तरह से सहज आसान पर बैठ कर आपको ध्यान या समाधि लगानी है या उस मे लय होना है ये प्रक्रिया साधक नियम से नित्य करता है और समाधि की अवस्था का समय के व्यतीत होने पर पुनः लौट आता है जब साधक इस समाधि अवस्था मे बैठता है तो अपने गुरु को स्मरण कर वैठता है इसका इल्म गुरु को हो जाता है और दूरस्थ बैठे गुरु अपने शिष्य पर आध्यात्मिक नियनतरण रखते है
ध्यान कीइस अवस्था से जब शिष्य समाधि की अवस्था मे जाता है तो उसे अपने आप मे स्पर्श गंध रस रूप प्रकाश और शब्द ओर स्वम् के शरीर के होने का आभास नही होता ओर ज्ञान ज्ञाता ओर ज्ञेय का भेद भी मिटा जाता है ऐसी समाधिस्थ अवस्था मे मन स्थिर शांत हो जाता है सभी जिज्ञासाएं मिट जाती है ओर इस अवस्था मे जो भी होगा वह समाधि में ही होगा और ये घटित समाधि की स्तिथि समाधि ही कहि जाएगी ऐसी अवस्था मे जब मन निष्क्रिय हो जाएगा और बिचार शून्य हो शून्यता आ जायेगी और मन अन्तरमुखी हो जाये तो ये अवस्था ही समाधि की परिकस्था या जीवन मुक्त होना कहलाएगी